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कुनबों के दरबार हमारी बस्ती में / विजय किशोर मानव

कुनबों के दरबार हमारी बस्ती में
उनके ही अख़बार हमारी बस्ती में

आज राजधानी जाने की जल्दी में
मिलता हर फ़नकार हमारी बस्ती में

पक्की फ़र्श दुधमुंहों के घुटने छीले,
कच्ची है दीवार हमारी बस्ती में

मुस्कराहटें सेंसर हों तो क्या चीख़ें,
पड़े चोट पर मार हमारी बस्ती में

घास-फूस के घर, अलाव दरवाज़े पर
आंधी के आसार हमारी बस्ती में