भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कुमाणस काळ / कन्हैया लाल सेठिया
Kavita Kosh से
किण री
कूख स्यूं
जलम्यो
ओ कुमाणस काळ ?
कुण है
ईं राममार्यै रा
मा’र बाप?
फिर पूछतो
सिस्टी रो
सिरजणहार
चतुरानन बिरमा,
गयो पैली
बिरमांड रै
पालनकर्ता
विष्णु कनैं
बोल्या लिछमीनाथ
मैं तो समइयो
तू ही रच्यो है
ईं कुबधी नै
फुड़ाणै वासतै
ठीकरो भूंड रो
म्हारै माथै पर,
सुण’र ओळमो
गयो पगोपग
डोकरियो
षंकर कनैं
देखतां ही
बीं नै
समझग्या
भोळानाथ
सा बात,
कयो, जायो
इण काळ नै
घणखाऊ
कामचोरां री
डकार,
बां री ही चुन्योड़ी
आज री सरकार,
फिरै है
जणां ही
खुल्लै सांड सो
ओ गुनैगार !