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कुम्हार / पतझड़ / श्रीउमेश

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दूरै सें देखै छी होभेॅ लालें चाक चलावै छै।
खपड़ा, घैलोॅ, मेटा, कुढ़िया, ढकनी खूब बनाबै छै॥
सर-सर-सर-सर चाक चलै छै होय छै मट्टी सें निर्मान।
डोरी के तलवार चलै छै, उतरै छै सुन्दर सामान॥
माटी कोड़ी केॅ हमरै बगलोॅ के खेतोॅ सें लानी।
हम्हैं कुइयां के पानी सें लानै छै माटी सानो॥
लाती सें लतियाबै छै माटी केॅ पम्प करैछै खूब।
मौगी-मुन्सा भिड़लोॅ छै, कंकड़ चूनै में सबकेॅ हूब।
केतना जतनोॅ सें रौदी में सब के साथ सुखाबै छै।
आवा में आगिन जोड़ी केॅ लाले लाल पकाबै छै॥
कलाकार लाले कुम्हार छेॅ केतना वें राखै छेॅ ध्यान।
सब रं मुरती गढ़ी-गढ़ी केॅ काटै छेॅ ब्रह्मा के कान॥
माटी देखोॅ कोड़लोॅ जाय छेॅ, लात सहै छेॅ, घूमै छेॅ।
आवा में झरकी-पाकी केॅ जन-सामाज तक जूभै छेॅ॥
योग्य बनी केॅ तपी-घुटी के सब के प्यास बुझाबै छै।
धैलोॅ मेटा-सूराही सें ठन्ढा जोॅल पिलाबै छेॅ॥
मानव-जीवन सफल बनाबै में सहना छै कस्ट अनेक।
लात सही केॅ, तपी-घुटी केॅ सच्चा-सेवा में छै टेक॥
माटीं अपना जीवन सें मानब केॅ सीख सिखाबै छै।
मानव-जीवन सफल बानाय के सच्चा राह दिखाबै छै॥