भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कुरार गाँव की औरतें-4 / देवमणि पांडेय
Kavita Kosh से
कुरार गाँव की औरतें
तेज़ धूप में अक्सर
पसीने से लथपथ
खड़ी रहती हैं राशन की लाइनों में
देर रात गए उनींदी आँखों से
करती हैं पतियों का इंतज़ार
मनाती हैं मनौतियाँ
रखती हैं व्रत उपवास
और कितनी ख़ुश हो जाती हैं
एक सस्ती सी साड़ी पाकर
भूल जाती हैं सारी शिकायतें
वे इस क़दर आदतों में हो गईं हैं शुमार
कि लोग भूल गए हैं
वे कुछ कहना चाहती हैं
बाँटना चाहती हैं अपना सुख-दुख
देर रात को अक्सर
दरवाज़े पर देते हुए दस्तक
सहम उठते हैं हाथ
किसी दिन अगर
औरतों ने तोड़ दी अपनी चुप्पी
तो कितना मुश्किल हो जाएगा
इस महानगर में जीना