कुरुक्षेत्र / तृतीय सर्ग / भाग 1
समर निंद्य है धर्मराज, पर,
कहो, शान्ति वह क्या है,
जो अनीति पर स्थित होकर भी
बनी हुई सरला है?
- सुख-समृद्धि क विपुल कोष
- संचित कर कल, बल, छल से,
- किसी क्षुधित क ग्रास छीन,
- धन लूट किसी निर्बल से।
- सुख-समृद्धि क विपुल कोष
सब समेट, प्रहरी बिठला कर
कहती कुछ मत बोलो,
शान्ति-सुधा बह रही, न इसमें
गरल क्रान्ति का घोलो।
- हिलो-डुलो मत, हृदय-रक्त
- अपना मुझको पीने दो,
- अचल रहे साम्रज्य शान्ति का,
- जियो और जीने दो।
- हिलो-डुलो मत, हृदय-रक्त
सच है, सत्ता सिमट-सिमट
जिनके हाथों में आयी,
शान्तिभक्त वे साधु पुरुष
क्यों चाहें कभी लड़ाई?
- सुख का सम्यक्-रूप विभाजन
- जहाँ नीति से, नय से
- संभव नहीं; अशान्ति दबी हो
- जहाँ खड्ग के भय से,
- सुख का सम्यक्-रूप विभाजन
जहाँ पालते हों अनीति-पद्धति
को सत्ताधारी,
जहाँ सुत्रधर हों समाज के
अन्यायी, अविचारी;
- नीतियुक्त प्रस्ताव सन्धि के
- जहाँ न आदर पायें;
- जहाँ सत्य कहनेवालों के
- सीस उतारे जायें;
- नीतियुक्त प्रस्ताव सन्धि के
जहाँ खड्ग-बल एकमात्र
आधार बने शासन का;
दबे क्रोध से भभक रहा हो
हृदय जहाँ जन-जन का;
- सहते-सहते अनय जहाँ
- मर रहा मनुज का मन हो;
- समझ कापुरुष अपने को
- धिक्कार रहा जन-जन हो;
- सहते-सहते अनय जहाँ
अहंकार के साथ घृणा का
जहाँ द्वन्द्व हो जारी;
ऊपर शान्ति, तलातल में
हो छिटक रही चिनगारी;
- आगामी विस्फोट काल के
- मुख पर दमक रहा हो;
- इंगित में अंगार विवश
- भावों के चमक रहा हो;
- आगामी विस्फोट काल के
पढ कर भी संकेत सजग हों
किन्तु, न सत्ताधारी;
दुर्मति और अनल में दें
आहुतियाँ बारी-बारी;
- कभी नये शोषण से, कभी
- उपेक्षा, कभी दमन से,
- अपमानों से कभी, कभी
- शर-वेधक व्यंग्य-वचन से।
- कभी नये शोषण से, कभी
दबे हुए आवेग वहाँ यदि
उबल किसी दिन फूटें,
संयम छोड़, काल बन मानव
अन्यायी पर टूटें;
- कहो, कौन दायी होगा
- उस दारुण जगद्दहन का
- अहंकार य घृणा? कौन
- दोषी होगा उस रण का?
- कहो, कौन दायी होगा