कुरूक्षेत्र / जयशंकर प्रसाद
नील यमुना-कूल में तब गोप-बालक-वेश था
गोप-कुल के साथ में सौहार्द-प्रेम विशेष था
बाँसुरी की एक ही बस फूंकी तो पर्याप्त थी
गोप-बालों की सभा सर्वत्र ही फिर प्राप्त थी
उस रसीले राग में अनुराग पाते थे सभी
प्रेम के सारल्य ही का राग गाते थे सभी
देख मोहन को न मोहे, कौन था इस भूमि में
रास की राका रूकी थी देख मुख ब्रजभूमि में !
धेनु-चारण-कार्य कालिन्दी-मनोहर-कूल में
वेणुवादन-कुंज में, जो छिप रहा था फूल में
भूलकर सब खेल ये, कर ध्यान निज पितु-मात का-
कंस को मारा, रहा जो दुष्ट पीवर गात का
थी इन्होने ही सही सत्रह कठोर चढ़ाइयाँ
हारकर भागा मगध-सम्राट कठिन लड़ाइयाँ
देखकर दौर्वृत्य यह दुर्दम्य क्षत्रिय-जाति का
कर लिया निश्चित अरिन्दन ने निपात अराति का
वीर वार्हद्रथ बली शिशुपाल के सुन सन्धि को
और भी साम्राज्य-स्थापना की महा अभिसन्धि को
छोड़कर ब्रज, बालक्रीड़ा-भूमि, यादव-वृन्द ले
द्वारका पहुंचे, मधुप ज्यों खोज ही अरविन्द ले
सख्यस्थापन कर सुभद्रा को विवाहा पार्थ में
आप साम-भागी हुए तब पाण्डवों के स्वार्थ से
वीर वार्हद्रथ गया मारा कठिन रणनीति से
आप संरक्षक हुए फिर पाण्डवों के, प्रीति से
केन्द्रच्युत नक्षत्र-मण्डल-से हुए राजन्य थे
आन्तरिक विद्वेष के भी छा गये पर्यन्य थे
दिव्य भारत का अदृष्टाकाश तमसाच्छन्न था
मलिनता थी व्याप्त कोई भी कहीं न प्रसन्न था
सुप्रभात किया अनुष्ठित राजसूय सुरीति से
हो गई ऊषा अमल अभिषेक-जलयुत प्रीति से
धर्मराज्य हुआ प्रतिष्ठित धर्मराज नरेश थे
इस महाभारत-गगन के एक दिव्य दिनेश थे
यो सरलता से हुआ सम्पन्न कृष्ण-प्रभाव से
देखकर वह राजसूय जला हृदय दुर्भाव से
हो गया सन्नद्ध तब शिशूपाल लड़ने के लिये
और था ही कौन केशव संग लड़ने के लिये
थी बड़ी क्षमता, सही इससे बहुत-सी गालियाँ
फूल उतने ही भरे, जितनी बड़ी हो डालियाँ
क्षमा करते, पर लगे काँटे खटकने और को
चट धराशायी किया तब पाप के शिरमौर को
पांडवों का देख वैभव नीच कौरवनाथ ने
द्युत-रचना की, दिया था साथ शकुनी-हाथ ने
कुटिल के छल से छले जाकर अकिच्चन हो गये
हारकर सर्वस्व पाण्डव विपिनवासी हो गये
कष्ट से तेरह बरस कर वास कानन-कुंज में
छिप रहे थे सूर्य-से जो वीर वारिद-पुंज में
कृष्ण-मारूत का सहारा पा, प्रकट होना पड़ा
कर्मं के जल में उन्हें निज दुःख सब धोना पड़ा
आप अध्वर्य्य हुए, ब्रह्म यधिष्ठिर को किया
कार्य होता का धनंजय ने स्वयं निज कर लिया
धनुष की डोरी बनी उस यज्ञ में सच्ची स्त्रुवा
उस महारण-अग्नि में सब तेज-बल ही घी हुवा
बध्य पशु भी था सुयोधन, भार्गवादिक मंत्र थे
भीम के हुंकार ही उद्गीथ के सब तंत्र थे
रक्त-दुःशासन बना था सोमरस शुचि प्रीति से
कृष्ण ने दीक्षित किया था धनुवैंदिक रीति से
कौरवादिक सामने, पीछे पृथसुत सैन्य है
दिव्य रथ है बीच में, अर्जुन-हृदय में दैन्य है
चित्र हैं जिसके चरित, यह कृष्ण रथ से सारथी
चित्र ही-से देखते यह दृश्य वीर महारथी
मोहनी वंशी नहीं है कंज कर में माधुरी
रश्मि है रथ की, प्रभा जिसमें अनोखी है भरी
शुद्ध सम्मोहन बजाया वेणु से ब्रजभूमि में
नीरधर-सी धीर ध्वनि का शंख अब रणभूमि में
नील तनु के पास ऐसी शुभ्र अश्वों की छटा
उड़ रहे जैसे बलाका, घिर रही उन पर घटा
स्वच्छ छायापथ-समीप नवीन नीरद-जाल है
या खड़ा भागीरथी-तट फुल्ल नील तमाल है
छा गया फिर मोह अर्जुन को, न वह उत्साह था
काम्य अन्तःकरण में कारूण्य-नीर-प्रवाह था
‘क्यों करें बध वीर निज कुल का सड़े-से स्वार्थ से
कर्म यह अति घोर है, होगा नहीं यह रथ के वहाँ
सव्यासाची का मनोरथ भी चलाते थे वहाँ
जानकर यह भाव मुख पर कुछ हँसी-सी छा गई
दन्त-अवली नील घन की वारिधारा-सी हुई
कृष्ण ने हँसकर कहा-‘कैसी अनोखी बात है
रण-विमुख होवे विजय ! दिन में हुई कब रात है
कयह अनार्यों की प्रथा सीखी कहाँ से पार्थ ने
धर्मच्युत होना बताया एक छोटे स्वार्थ ने
क्यों हुए कादर, निरादर वीर कर्माें का किया
सव्यसाची ने हृदय-दौर्बल्य क्यों धारण किया
छोड़ दो इसको, नहीं यह वीन-जन के योग्य है
युद्ध की ही विजय-लक्ष्मी नित्य उनके भोग्य है
रोकते हैं मारने से ध्यान निज कुल-मान के
यह सभी परिवार अपने पात्र हैं सम्मान के
किन्तु यह भी क्या विदित है हे विजय ! तुमको सभी
काल के ही गाल में मरकर पडे़ हैं ये कभी
नर न कर सकत कभी, वह एक मात्र निमित्त है
प्रकृति को रोके नियति, किसमें भला यह वित्त है
क्या न थे तुम, और क्या मै भी न था, पहले कभी
क्या न होंगे और आगे वीर ये सेनप सभी
आत्मा सबकी सदा थी, है, रहेगी मान लो
नित्य चेतनसूत्र की गुरिया सभी को जान लो
ईश प्रेरक-शक्ति है हृद्यंत्र मे सब जीव के
कर्म बतलाये गये हैं भिन्न सारे जीव के
कर्म जो निर्दिष्ट है, हो धीर, करना चाहिये
पर न फल पर कर्म के कुछ ध्यान रखना चाहिये
कर रहा हूँ मैं, करूँगा फल ग्रहण, इस ध्यान से
कर रहा जो कर्म, तो भ्रान्त है अज्ञान से
मारता हूँ मैं, मरेंगे ये, कथा यह भ्रान्त है
ईश से विनियुक्त जीव सुयंत्र-सा अश्रान्त है
है वही कत्त, वहीं फलभोक्ता संसार का
विश्व-क्रीड़ा-क्षेत्र है विश्वेश हृदय-उदार का
रण-विमुख होगे, बनोगे वीर से कायर कहो
मरण से भारी अयश क्यों दौड़कर लेना चहो
उठ खड़े हो, अग्रसर हो, कर्मपथ से मत डरो
क्षत्रियोचित धर्म जो है युद्ध निर्भय हो करो
सुन सबल ये वाक्य केशव के भरे उत्साह स
तन गये डोरे दृगों के, धनुरूष के, अति चाह से
हो गये फिर तो धनजंय से विजय उस भूमि में
है प्रकट जो कर दिखाया पार्थ ने रणभूमि में