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कुर्सियों वाला / अमरजीत कौंके
Kavita Kosh से
मेरे सामने
कुर्सियों वाला बैठा
बुन रहा है कुर्सियाँ
एक तार दबाता
कभी दो उठाता
कितनी सहजता से
बुने जा रहा है कुर्सी
उसके सामने बैठा
मैं कितनी
बेचैनी से भरा हूँ
मुझे कहीं जाना भी नहीं है
मुझे कहीं लौटना भी नहीं है
काम भी नहीं कोई जरूरी मुझे
इंतज़ार भी नहीं कर रहा
मेरा कोई कहीं
लेकिन फिर भी
उसके सामने बैठा
मैं कितनी
बेचैनी से भरा हूँ
और वह
ख़ुदा जैसा मनुष्य
एक तार दबाता
कभी दो उठाता
कितनी सहजता से
कुर्सी बुने जा रहा है।