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कुर्सी सरकारी / रमेश रंजक

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दाँव-पेंच ऐसे हैं कुर्सी सरकारी के
काम नहीं करती हैं बिना जानकारी के।

मतलब से मतलब हल करना
कुर्सी दर कुर्सी सिखलाती
जो न समझ पाया तो उनकी
नज़रों में गँवार देहाती

सीख गए तो समझदार हो
हिस्से हो परदादारी के।
दाँव-पेंच ऐसे हैं कुर्सी सरकारी के।

होते हुए काम के पीछे
कितना कुछ होता है भाई
लेनी चाही खोज-ख़बर तो
बढ़ीं उलझने, आफ़त आई

फिर सख़्ती से कौन सुनेगा
बोल तुम्हारे लाचारी के
दाँव-पेंच ऐसे हैं कुर्सी सरकारी के।

तुम ईमानदार बन्दे हो
तो लम्बी लाइन में आओ
साहब के दफ़्तर के आगे
रोज़-रोज़ हाज़िरी बजाओ

अड़चन पर अड़चने डालना
कर्म महान होशियारी के।
दाँव-पेच ऐसे हैं कुर्सी सरकारी के।

बहुत हो गया अब न चलेगा
लोभी साँठ-गाँठ का पहिया
इन्हें बताना ही होगा अब
बड़ा आदमी, नहीं रूपइया

उठो ! दिखाने ही होंगे अब
तेवर तीख़ी चिनगारी के।
काम नहीं करते जो बिना जानकारी के।