कुर्सी / केशव
यह देश
है
एक कुर्सी
बोलती है कुर्सी
और दरियाँ सुनती हैं
कुर्सी चाटती है
वर्तमान
और दरियाँ भविष्य बुनती हैं
सचमुच
एक कुर्सी है
देश
सब कुर्सियोँ का
एक ही वेष
कुर्सियाँ
मिल- बाँटकर खाती हैं
दरियोँ को
बस आँकड़े दिखाती हैं
बनती है
एक ही दिन
कछुआ
उस दिन दरियों के पास जाती है कुर्सी
कुर्सी
किस्तों में फेंकती है मुस्कान
दरियों की ओर
दरियाँ झुककर
मुस्कान के सिक्के बीनती हैं
कुर्सी हर बार इसी तरह
दरियों के हक कीलती हैं
दरियों के लिये
कुर्सी की महिमा
अपरम्पार
कुर्सी इस उधेड़बुन में
कि लगा रहे
दरबार
दरबार में हाज़िर
दरियाँ
बीत गयीं सदियाँ
सदियों के इस अंधकार में
कुर्सी ही चमकती आयी है
दरियों के किसी कोने से
फूटनेवाली
रोशनी की कोई किरच
कुर्सी की आँखों में चुभती है
कुर्सी फैंकती है जाल
दरियों को समेटने के लिए
पर एक बार फूटनेवाली रोशनी
फिर कभी बुझती है