भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कुली / सौरभ

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बोझा ढोता बीड़ी सुलगाता हँसता
    स्टेशनों पर सुस्ताता
हर जगह नजर आता है कुली
रोज़ कुआँ खोद पानी पीता
कोई पहुँचा हुआ फकीर है कुली
वह जो दबा हुआ सा दिख रहा है
बोझ के तले
महँगाई ने उसे झुका रखा है
दब गए हैं उसके सपने
नष्ट हो गई हैं इच्छाएँ
चढ़ाई चढ़ता साहब लोगों को होटल दिखाता
सहता है उनके ताने
सुन रखा है उसने
कुत्ते का भी दिन आता है
उसका आएगा या नहीं
इसी सोच में
छंग का एक और गिलास गटकता है
और चल देता है अपने डेरे की ओर
झूमता हुआ।