कुल-ललना / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
आँख में लज्जा हो ऐसी,
फाड़ जो परदों को फेंके;
राह जो बुरे तेवरों की
पहाड़ी घाटी बन छेंके।
चाँद-सा मुखड़ा ऐसा हो,
न जिस पर हों धब्बे काले;
चाँदनी उससे वह छिटके,
सुधा जो वसुधा पर ढाले।
हँसे, तो वह बिजली चमके,
गिरे जो पापी के सर पर;
बहे उससे वह रस-धारा,
करे जो खुलती आँखें तर।
कान सीपों-जैसे सुंदर,
मैल से सदा रहें डरते;
बड़ी ही सुंदर बातों के
मोतियों से होवें भरते।
हिलाएँ जो वे होठों को,
फूल तो मुँह से झड़ पावे;
रहे जिसमें ऐसी रंगत,
काठ उकठा भी फल लावे।
कलेजा उनका कमलों-सा
खुले में खिले रंग लावें;
दिशा जिससे मह-मह महके,
रमा जिसमें घर कर पावे।
रहे जी में सब दिन बहती
देश-ममता की वह धारा;
वेग से जिसके बह जावे
जमा कूड़ा-करकट सारा।
लगे निजता इतनी मीठी,
परायापन इतना कड़वा
कि जिससे गिलास काँच के ले
न फेंकें गंगा-जल-गड़वा।
अलग जो कर दे पय पानी,
हंस की-सी वे चालें चलें;
जहाँ अँधियारा दिखलावे,
वहाँ पर दीपक जैसी बलें।
सदा अपने हाथों में ले
लोक-हित-फूलों की डाली;
कुलवती ललनाएँ रख लें
लाल के मुखड़े की लाली