कुल परिवार का मोह / लोकगीता / लक्ष्मण सिंह चौहान
कौरव पाण्डव कृष्ण! एके जड़ के गछिया हो।
कुल मिली सौ, पांच डाल हो सांवलिया॥
पांच के नाम सें कि आंच आवे पारे रामा।
सौ नास करे सरबनासे हो सांवलिया॥
नहीं हम चाहों कृष्ण राज सुख भोगवा हो।
तनिको न विजय हुलास हो सांवलिया॥
जिनहुं के लेलु यार! राज-पाट जीतबैय हो।
से हो सब छैय मरैले तैयार हो सांवलिया॥
अगिया बुझैवैय साथी नैना जल सींचबैय हो।
कुल केर बगिया बचैबैय हो सांवलिया॥
ऐहन जीवन, भोग, राज सें कि पैबैय रामा।
लेहुआ से लेपल महल हो सांवलिया॥
दारुण विपद झेली पावैय छैय जरिकबा हो।
केना कुलवोरना कहैबैय हो सांवलिया॥
नीक नीक लोगबा ते खाड़ रन भूमिया हो।
मारी के जुलुसिबां उठैबैय हो सांवलिया॥
धिक!धिक! हमरो जनम लेबा जगवा में।
एत थर काण्ड हाय! देखैले हो सांवलिया॥
प्राण धन के आस छारि ये हो सब खाड़ रामा।
गुरु, चाचा, बेटा दादा मामा हो सांवलिया॥
पोता, ससुर, सार सब परिवरबा हो।
हमरहु के मारैब तऊ न मारु हो सांवलिया॥
सरग, पताल, मरतलोक फेर राजपाट।
मान लां कि मिलैय तऊ ना मारु हो सांवलिया॥
ये हो सब राज जेना धूल के समान रामा।
त धरती के राज केना काज हो सांवलिया॥
दुरयोधन आदि सब भैइया के मारी रामा।
किय बड़ मोद मन होतैय हो सांवलिया॥
नियम बताबैय रामा मारु उतपातिया के।
एकरा मारनें नहीं दोष हो सांवलिया॥
नियम धरमुवां में बर बर भेदवा हो।
कि पाप के पिटरिया उठैबैय हो सांवलिया॥
अपने त भाई रामा चाचा के लरिकवा हो।
मारी मारी केना पाप लेबैय हो सांवलिया॥
माधव! माधव! भला अपनो कुटुमुबां के।
मारी जारी केना सुख पैयबैय हो सांवलिया॥