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कुहराच्छादित-नभ / महेन्द्र भटनागर
Kavita Kosh से
पड़ा हुआ है कम्बल ओढ़े
पसरा-पसरा जागा अम्बर !
दिन चढ़ आया कितना; फिर भी
हिलने का लेता नाम नहीं,
केवल सोना - सोना; इसका,
किंचित भी कोई काम नहीं,
ठंड अधिक का किये बहाना
पक्का बना हुआ घन-चक्कर !
गर्म दुपहरी आने पर अब
लगता, सचमुच, कुछ हिला-डुला,
दूर क्षितिज की सीमाओं पर
दिखता कम्बल भी खुला-खुला,
तनिक क्षणों में, बाँधेगा लो
सारा अपना बोरा-बिस्तर !