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कुहरा उठा / केदारनाथ सिंह
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कुहरा उठा
साये में लगता पथ दुहरा उठा,
हवा को लगा गीतों के ताले
सहमी पाँखों ने सुर तोड़ दिया,
टूटती बलाका की पाँतों में
मैंने भी अन्तिम क्षण जोड़ दिया,
उठे पेड, घर दरवाज़े, कुआँ
खुलती भूलों का रंग गहरा उठा ।
शाखों पर जमे धूप के फाहे,
गिरते पत्तों के पल ऊब गए,
हाँक दी खुलेपन ने फिर मुझको
डहरों के डाक कहीं डूब गए,
नम साँसों ने छू दी दुखती रग
साँझ का सिराया मन हहरा उठा ।
पकते धानों से महकी मिट्टी
फ़सलों के घर पहली थाप पड़ी,
शरद के उदास काँपते जल पर
हेमन्ती रातों की भाप पड़ी,
सुइयाँ समय की सब ठार हुईं
छिन, घड़ियों, घण्टों का पहर उठा !