भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कुहरा छाया / सभामोहन अवधिया 'स्वर्ण सहोदर'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कुहरा छाया, कुहरा छाया,
घिर आया घना अँधेरा है!
कुहरे का घर-घर डेरा है,
घर, बस्ती, पेड़, पहाड़ नदी-
सबको कुहरे ने घेरा है!
है अजब धुआँ-सा मँडराया,
कुहरा छाया, कुहरा छाया।
हम नजर बहुत दौड़ाते हैं,
लख नहीं दूर तक पाते हैं।
कुहरे के सागर में देखो,
सब-के-सब डूब नहाते हैं।
क्या दृश्य अनोखा दिखलाया,
कुहरा छाया, कुहरा छाया!

धुँधला, धुँधला सब ओर घिरा,
इकदम कुहरा दिख रहा निरा।
मानो, कुहरे का एकछत्र,
भूमंडल पर हो राज फिरा!
पग-पग पर है इसकी माया,
कुहरा छाया, कुहरा छाया!