भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कुहरा / स्वप्निल श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कुहरा इतना घना था कि
मुझे अपना हाथ नहीं
दिखाई दे रहा था
तुम्हारा हाथ दिखाई दे रहा था
क्योंकि वह मेरे हाथ में था
 
अन्धेरे में कुछ न दिखाई दे
स्पर्श से हम सहज देख
सकते हैं
स्पर्श से हम देखने के साथ
अनुभव भी करते हैं
देखना — एक अधूरा काम है
 
इसलिए अन्धेरे इतने बुरे
नही होते जितना बुरा होता है
भीतर का अन्धेरा