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कुहासा, तुम नहीं हो प्रिय / ओम नीरव
Kavita Kosh से
धुआँ है धुंध है आँगन कुहासा, तुम नहीं हो प्रिय।
रचाती रश्मि दिन का नहछुआ-सा, तुम नहीं हो प्रिय।
धँसा हिमपात के विकराल दलदल में दिवस जैसे,
नियति-अनुबंध में हूँ मैं फँसा-सा, तुम नहीं हो प्रिय।
अजल अनुदार नातों की लकड़ियाँ चीन दी मैंने,
जला ओलाव चाहत की चिता-सा, तुम नहीं हो प्रिय।
तुम्हारे संस्मरण पीने चला नव काव्य का आग्रह,
दिवस के रक्त का ज्यों शीत प्यासा, तुम नहीं हो प्रिय।
चढ़ा दिन, उठ रहे प्रियतम धुएँ पर धुंध छायी-सी,
रही परिरम्भ कर जैसे खुलासा, तुम नहीं हो प्रिय।
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