भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कुहु-कुहु कोयली बोलथे रे / पीसी लाल यादव
Kavita Kosh से
कुहु-कुहु कोयली बोलथे रे।
मया मन में मंदरस घोरथे रे।
तैंहा कहाँ बिलमे मन मोहना,
मन सुवा तोला अगोरथे रे।
डारा-पाना हवा म डोलथे रे,
पाका बीही ल सुवा फोलथे रे॥
सुरता के झाँझ हर झोलथे रे।
मन के पीरा भेद ल खोलथे रे॥
पारा-परोस रहि-रहि ठोलथे रे।
मया-पिरित काबर मोलथे रे॥