कूए-सितमगर ख़ातिरे-ख़ंजर जब दीवाने जाते हैं / कांतिमोहन 'सोज़'
तराना
कूए-सितमगर ख़ातिरे-ख़ंजर जब दीवाने जाते हैं ।
ज़लज़ले गिल में वलवले दिल में लब पे तराने आते हैं ।।
अपने हैं यूँ तो सारे मुग़न्नी आलिमो-फ़ाज़िल दानिशवर
उनसे जाकर कुछ कहते हैं हमको कुछ समझाते हैं ।
हद्दे-जनूं की हमसे न पूछो हमने वो मंज़र देखा है
अपने घर को आग लगाकर लोग लहू गरमाते हैं ।
ख़ल्क को रंगारंग बनाकर ख़ुद क्यूँ हैं इतने बेरंग
खून पसीना करनेवाले भूखे क्यूँ सो जाते हैं ।
लाठी-गोली खून की होली सब है हमारे हिस्से में
वो मदहोश पलंग पर लेटे क्या मीज़ान लड़ाते हैं ।
ज़ख़्म है गहरा साँस पे पहरा हाथ दबा है संग तले
वहशत जब तारी होती है बंधन सब खुल जाते हैं ।
ना कोई दावा ना उकसावा ना पछतावा ना कोई ग़म
अपनी ग़ज़ल तो लाल फ़सल है लूटो सोज़ लुटाते हैं ।।
21-3-1985