भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कूए-सितमगर ख़ातिरे-ख़ंजर जब दीवाने जाते हैं / कांतिमोहन 'सोज़'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तराना

कूए-सितमगर ख़ातिरे-ख़ंजर जब दीवाने जाते हैं ।
ज़लज़ले गिल में वलवले दिल में लब पे तराने आते हैं ।।

अपने हैं यूँ तो सारे मुग़न्नी आलिमो-फ़ाज़िल दानिशवर
उनसे जाकर कुछ कहते हैं हमको कुछ समझाते हैं ।

हद्दे-जनूं की हमसे न पूछो हमने वो मंज़र देखा है
अपने घर को आग लगाकर लोग लहू गरमाते हैं ।

ख़ल्क को रंगारंग बनाकर ख़ुद क्यूँ हैं इतने बेरंग
खून पसीना करनेवाले भूखे क्यूँ सो जाते हैं ।

लाठी-गोली खून की होली सब है हमारे हिस्से में
वो मदहोश पलंग पर लेटे क्या मीज़ान लड़ाते हैं ।

ज़ख़्म है गहरा साँस पे पहरा हाथ दबा है संग तले
वहशत जब तारी होती है बंधन सब खुल जाते हैं ।

ना कोई दावा ना उकसावा ना पछतावा ना कोई ग़म
अपनी ग़ज़ल तो लाल फ़सल है लूटो सोज़ लुटाते हैं ।।

21-3-1985