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कूचा कूचा नगर नगर देखा / सरवर आलम राज़ ‘सरवर’

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कूचा कूचा नगर नगर देखा
ख़ुद में देखा उसे अगर देखा!

किस्सा-ए-ज़ीस्त मुख़्तसर देखा
जैसे इक ख़्वाब रात भर देखा

दर ही देखा न तूने घर देखा
ज़िन्दगी तुझको खूब कर देखा

कोई हसरत रही न उसके बाद
उस को हसरत से इक नज़र देखा

हम को दैर-ओ-हरम से क्या निस्बत
उस को दिल में ही जल्वा-गर देखा

दर्द में, रंज-ओ-ग़म में,हिरमां में
आप को ख़ूब दर-ब-दर देखा

हाल-ए-दिल दीदनी मिरा कब था?
देखता कैसे? हाँ! मगर देखा

सच कहो बज़्म-ए-शे’र में तुम ने
कोई "सरवर" सा बे-हुनर देखा?