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कूची / सरोज परमार
Kavita Kosh से
भरी दुपहरी
मैं श्राँत कलांत
मगर अब नहीं
क्योंकि कोई निर्झर
मरु पर फूट पड़ा था
भिगो गया अंतःस्तल तक
मरु शाद्वल बन गया
मैं थी क्लांत
मगर अब नहीं हूँ ।
मैं थी इस्पात
कड़ा इस्पात
मगर अब नहीं हूँ
किसी दिव्य स्फुलिंग ने
पर्तों को चूम लिया
वह निकले बन तरल सरल
उसके साँचे में ढल सी गई
मैं थी इस्पात
मगर अब नहीं हूँ।
मैं कनी थी
हीरे की कनी।
किसी कर्णफूल के अधबने फूल में समाई
मैं रही नहीं
कर्णफूल पूरा हो गया।
णॅ क्लांत
न इस्पात
न ही हीरे की कनी
अब किसी कलाकार की कूँची हूँ
अब कलाकार
जब तब, जिस,तिस,चटख,
भोंडे,गाढ़े फीके रंगों में
सराबोर करता रहता है
और
अपने दायरे के कैनवस पर
उकेरता रहता है आकृतियाँ