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कूदे हैं जब भी यार तुम्हारी छत पर / अशोक अंजुम
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कूदे हैं जब भी यार तुम्हारी छत पर
हम हो गए शिकार तुम्हारी छत पर
सारी कटी पतंग लड़खड़ा के क्यों
गिरती हैं बार-बार तुम्हारी छत पर
बारिश में साथ-साथ तो भीगे लेकिन
जमकर चढ़ा बुखार तुम्हारी छत पर
तुम तो हमेशः हमको बुलाती रहतीं
आँखें हैं बेशुमार तुम्हारी छत पर
आती हैं जब भी फ़िल्म बालिगों वाली
लगते हैं इश्तिहार तुम्हारी छत पर
कितने ही लफंगों की तमन्ना है यही
आकर करें वो प्यार तुम्हारी छत पर
यूँ तो कई छतों पे छलाँगें मारीं
आया मगर करार तुम्हारी छत पर
अब तो यही दुआ है कटें अंजुम जी
दिन ज़िन्दगी के चार तुम्हारी छत पर