किसी परिपूर्ण लम्बी कविता की मानिन्द
तुम्हारा व्यक्तित्व
जैसे एक भव्य वास्तु-शिल्प
तुम्हारे इर्द-गिर्द फैली हरियाली पर
रेंगते जीवों ने
बचपन से दिए तुम्हें कई दंश
पर तुम्हारे नाख़ून कभी
नुकीले नहीं बने उन्हें सहकर भी
प्रकृति की सुन्दरता,
इनसानों में छुपे गुणों से
गदगद होता तुम्हारा मन
वही उस वास्तु-शिल्प का गुम्बद
तुम्हारे कौतुक से भरे उदार शब्द
फैलते जाते हैं किसी घण्टे के नाद की तरह
उस गुम्बद में
कली के खिलते समय
जैसे हुलसते हैं परागकण
उसी तरह तुम्हारी सम्वेदनशीलता…
सूक्ष्म… तरल
कविता नहीं, फूल भी नहीं
फूलों का पराग ही देना होगा तुम्हें
उपहार स्वरूप, कृतज्ञता से भरकर !
मूल मराठी से अनुवाद : सुनीता डागा