भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कृपया ठुँग न मारें -6 / नवनीत शर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


रँभाते बछड़े /
कुँकुआते पिल्ले /
गरम चादरों में तह लगते खरगोश /
पट्टुओं की शक्ल
में पसरे भेडू /
गुल्ली डंडे के मैदान से
बेघर कर दिए गए
घरों में क़ैद ब च्चे/
ख़बर होने के इंतज़ार में
बूढ़े देवदार /
स्लेट बनकर बर्फ रोकते
निरंतर गलते पहाड़ /
चाँद तोड़ने की कोशिश में
गिर-गिरकर सँभलते क़दम /
बस्ती वालों की शराब से नहाए हुए /
ख़ून में लिथड़े हुए
होरी ,गोबर,धनिया,घीसू,बुद्धन
चौबारों पर बाल सँवारते
गोश्त बनकर रह गए जिस्म /
सब के सब आएँगे ।
तुम सबको देना
एक-एक तख़्ती
वे भी कहेंगे आगे
कृपया ठुँग न मारे