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कृषक / बसन्तजीत सिंह हरचंद

भारत का यह अन्न - दाता
स्वयम कुछ नहीं खा पाता ,
चींटे -सा कर्म - रत
चींटे - सी लगी पेट में गाँठ .

इसके बल के बैलों ने हल खींचा है ,
इसने खेतों को श्रम - जल से सींचा है ,
पर ,धन ने इसे दिखाया अति नीचा है .

इसका निष्ठुर
दु:खों के दग्ध थपेड़ों से विचलित मन ,
इसका जीवन
ज्यों छाँव - रहित कंटीली थूहर का वन ,
इसके पथ में
लू ,धूप ,तप्त रेता का मरुमय निर्जन ;
निर्धनता के अतिरिक्त
नहीं कोई भी इसका अपना
ना साहस ,ना उत्साह
और ना ही श्रम .

पेट तो है इसका
उस खड़ी बड़ी हवेली में
वह पेट कि जिसके शोषित कर्मों पर "आ थू ."
वह पेट कि जो पी गया निर्धनों के आसूं,
वह पेट कि कितने अध - भूखे पेटों को
खा जाने पर भी कभी नहीं भरता है,
वह पेट कि जिसके अट्टहास में कितने
बेचारों का रोदन घुट के मरता है ;
वह पेट कि जिसके जबड़े
मानव - लोहू से सने हुए लथपथ हैं ,
वह पेट दूसरों को खाने में रत है ;
वह पेट कि जो नर है
कि नर- भक्षी है.

जो कृषक विश्व का करता पालन - पोषण ,
उसको खा जाता या सूखा या शोषण .

दुपहर को जब आती है इसकी पत्नी ,
रोटी पर रख आचार ,आम की चटनी ,
मिट्टी का मटका लस्सी से मुंह तक भर,
लाती है इसके लिए
खेतों की मेंड़ो पर चल थिरक - थिरककर ;
तब उष्ण पसीने से यह भीग ---- नहाता ----
है भूल सभी श्रम जाता ;
पत्नी के पद की झाँझन की हुंकारें
सुन इसके भयकर दु:ख
भाग जाते हैं .

यह उच्च हवेली की स्वप्निल
रंगरलियों का आधार ,
यह वसंत का माली
ज्यों पतझार ..

(अग्निजा ,१९७८)