कृष्ण-चरित / एगारहम सर्ग / भाग 2 / तन्त्रनाथ झा
स्वार्थक वृत्तक केन्द्र स्वयं छी
परिधिक कोन ठेकान
वृत्तक परिधिक ज्ञापक होइछ
लोकक स्वत्वक मान
जे उदार चेता मानथि
वसुधाकेँ अपन कुटुम्ब
तानिक स्वार्थमे गोचर
होइछ परमार्थक प्रतिविम्ब।22।
तन धारण कए क्षूधा-
तृषादिक पूत्ति थीक कर्त्तव्य
ताहि विषय आसक्ति किन्तु
थिक यत्ने परिहतव्य
दुग्ध - पानसँ वंचित रहने
नहि होत किछु लाभ
किन्तु ताहि बिनु व्याकुल
रहब थीक दासेय स्वभाव।23।
अपरिपक्व अनियोजित दन्द्रिय
भए बलिष्ठ सविकार
सिरजि वासना दुर्जय जाल
करैछ शान्ति अपहार
सक्रिय तकर क्रमहि क्रम वश
कए दमन थीक उपपन्न
सहसा इन्द्रिय दमन जन्य
हो मति भ्रंश उत्पन्न।24।
जकर अन्न जल अछि
प्रत्यक्ष रोम रोममे व्याप्त
जकरा पकड़ि ठाढ़ भए
छी कएने मनुष्यता प्राप्त
तकरा उन्नति पथ पर
करब अग्रसर थिक कर्त्तव्य
भए मनुष्य ककरो उपकार
कदापि न बिस्मर्त्तव्य।25।
लोक-द्वयक सुगम साधन थिक
शाश्वत आश्रम - धर्म
प्रथमाश्रम कए पार लेल
अवगत कए जगतक मर्म
सम्प्रति भए गृहस्त ऋण-शोध
उचित करब समस्त ऋण शोध
ताहि निमित्त दाह संग्रह
आवश्यक होइछ बोध।26।
श्रौतकर्म - यज्ञादिक हेतुक
थिक पत्नी अनिवार्य
अपत्नीक रहि सम्पादित
होएत नहि पितरक काज
होइछ प्रबल प्रबल मनुष्यक
कुल रक्षाक निमित्त
काम भावना भए सुनियंत्रित
निर्मल होइछ चित्त।27।
जे समाज कए लालन पालन
देल समथँ बनाए
कए विकास अन्तर्हित
शक्तिक, क्षमता देल बढ़ाए।
सेवा तकर थीक सर्वोत्तम
कए सन्तति उत्पन्न
दी तकरा बनाए कए यत्न
सर्वविध गुण - सम्पन्न।28।
सहजहि कएलहुँ प्राप्त जन्म
लए दाय रूचिर आलोक
प्रज्वल रहए अनुक्षण सहइत
विविध बसातक झोँक
आजीवन करइत स्नेहक
सिंचन कए बहुल उपाय
राखि चली तकरा बरइत
विशेय द्युतिमान बनाए।29।
कहल, थीक स्त्री जाति
कुत्सिक, कलुष - चरित्र
बिसरि देल वत्सलता - निर्झर
जननी चरित पवित्र
मातृ रूप नारी पद
पंकेरूह - रज माथ चढ़ाए
करिअ प्रवेश गृहस्थाश्रममे
हरषि एतएसँ जाए।30।
भए गृहस्थ रहि अनासक्त
करइत नित वैध उपाय
साधन करब त्रिवर्गक चलइत
आँखि पसारि बचाए
अविल सलिल मध्य निर्लिप्त
पुर्रनिक पात समान
रहि अबद्ध बन्धनसँ अरजब
अपवर्गक शुचि ज्ञान।31।
यथाशक्ति कए शोध विविध
ऋण, सिरजि पालि परिवार
करब तृतीयाश्रम - प्रवेश
संुझाए तनयकाँ भार
तपश्चरण कए कए षड्रिपु
जय भए विराग शुचि चित्त
होएब तखन तुरीयाश्रमे
संन्यासार्थ प्रवृत्त।32।
नहि व्यक्तित्व अहाँक परिस्फुट
अछि सम्प्रति भल भेल
विश्ववृक्ष - पीयूष - फलक
आस्वादन नहि कए लेल
सरसी तट उपगत भए
शंक्ति चक्रक डरे
जाइत छी तृषार्त रहितहुँ
सन्दिग्ध भयेँ अकुलाए।33।
हमरा कहल सिखाएब
नृपदुहिता - गणकाँ रति - तन्त्र
अहाँ विप्र-सुमुखी तनयासँ
लए मकरध्वज - मन्त्र
बिसरब भव भय दयिता-
भुज पाश बद्ध उर लग्न
धरित अशिक्षित पटु विधु-
वदना कए सुख सागर मग्न’’।34।
कहल सुदामा, “सखे, अहाँ
जननीक स्नेह मन पाड़ि
देल हमर हि मरूथल बीच
उठाए प्रचण्ड बिहाड़ि
विश्वक कण्टक वनमे माता
थिकी कल्पतरू - तुल्य
अनायास हो प्राप्त जतए
स्नेहमृत अमित अमूल्य।35।
तनिक प्रबल उद्वेग - जन्य
आतुर छी सहसा भेल
अचिरहि करब प्रयाण
मातृपद कंच परगक लेल
तनिक कोड़मे माथ राखि कए
पुनि शिशुत्व जनु प्राप्त
करब चरण परिचरण अहर्निश
भए तत्पर पर्याप्त’’।36।
ता’ चरणयुध नादसँ परिसर मुखरित भेल।
नित्यकर्म हेतुक त्वरित सब शय्या तजि देल।37।
तारा निचयक ज्योति घटि देल ध्वान्त कए क्षीण।
भेल विहग कलरव निरत, रतिचर कोटर-लीन।38।
निकसल प्रभा दिगन्तसँ, प्राची अरूणित भेल।
कतहु तमिस्त्रा राशिमे आगि लागि जनु गेल।39।
साँझहि जे अलि भेल छल कमल कोष बिच बन्द।
प्रातहि निकसि पिसंग भए, भेल फिरए स्वच्छन्द।40।
अक्ष-आल गहि विप्र जपि, परिहरि चित्त - विकार।
गो - दोहन कए गोपगण अर्ध्य सूर्यकेँ ढार।41।
भए खगपोत साक्ष, तजि कुलाय उड़िआँत भए।
बुझि अपनाकेँ दक्ष, तरू-तरूपर विचरण करए।42।