कृष्ण-चरित / चारिम सर्ग / भाग 1 / तन्त्रनाथ झा
बितल वसन्त, निदायागमसँ आपत-प्रियता गेल
यदपि वृद्धिपर किन्तु क्रमिक दिन लोकक क्लेशद भेल
सज्जन-दुर्जन पाबि प्रकर्ष विदित निश्चित परिणाम
भए विनीत जन-रंजन वा सदम्भ परघर्षण देल।1।
शिशिरहि हिचक जकर परसहुजन सम्प्रति ताहि तड़ाग
सांयकाल जखन-तखनहि विस्मृत कए काल-विभाग
बाल-वृद्ध-युवजन पशु-पक्षि-निकर पुनि पुनि अवगाहि
नहि होअए सन्तुष्ट, विदित उपभोगहि तृष्णा जाग।2।
शिशिरहि मदन अगोरि कामिजन, भिरभिहि भेल प्रमत्त
कुसुम-विशिख हनि करए ताहि अनुखन सम्भोगसक्त
सम्प्रति जड़कल्प पड़ल कखनहुँकेँ फोलए आँखि
गलित-दन्त-नख यथा वृद्ध मार्जार अशक्त-विरक्त।3।
ज्वलित अग्निसँ अधिकत्विष रविकरसँ व्याकुल भेल
मृगपति खेपए दिवस भूधरक कुहर मध्य चल गेल
कमल-कोष -विच मधुकर, कुंजरनिकर वल्वलहि पैसि
युवमानस मृगलोचनि-नाभि-विवर धसि आश्रय लेल।4।
चण्ड-किरणसँ तप्त-बासरक तनभरि उद्गत घाम
विकच-कुसुम-व्याजेँ तरू-लता-विटप पर भरल ललाम
कुंज-कुंज भ्रमइत करइत गुंजन मधुकर भए भ्रान्त
भ्रमरी बुझि चुम्बन कर परिणत जम्बूफलक सकाम।5।
आतप-विकल पनस-फल भेल पुलक-कण्टकसँ पूर
भेल सरस सहकार - फलक मंजुल हरीतिका दूर
मुषित-कान्ति-तरूणी-कपोल -छवि भए परिणत कमनीय
पवन-वेगसँ भए चंचल खसि पड़ए रूचिर-रसपूर।6।
जगमग भरि तरू लिकुच किशोरी-गौरी-कुच अनुरूप
दाड़िम्बहि भल लुबुधल फल श्यामा-वक्षोज स्वरूप
आतप हरशिर-आनलशिखा भनि रतिपति भए भयभीत
तन्वी-तुंग-उरज सटि बैसल सहटि चुपचूप।7।
वह्नि शिखा सन तिग्म रविक करसँ तर-रक्षण-काम
धारए उर सन्नाह-रूप जनि पुरइत-पात प्रकाम
तनस्फोट उत्तप्त धराक तरंबुज नाना रंग
पाण्डुर पत्रांशुक-उपगूहित बढ़ि-बढ़ि प्रगट निकाम।8।
नलिनी-बुन्धक महि-मुर्च्छक किरणहि भए-भीत नितान्त
हृदयहि यथा पाणि-सरसीरूह धर कासार अशान्त
भए तृषार्त्त पीबए जल दौड़ल वासर भेल अधीर
कूदए जनु अस्ताचलसँ लवणम्बुधि-बिच भए भ्रान्त।9।
पसरल विपुल-राशि पतलोमे कतहु पसाही लागि
वनक लता-तरूगुल्म-क्ष्ुपादिकमे धए धधकल आगि
दवा-पजार देल, ग्रीष्मक कनसार भेल वन - प्रान्त
भर्जित होइछ सकल वनेचर त्रस्त दहोदिस भागि।10।
वर्षा सरस, शरद शोभन, हेमन्त-शिशिर भरि भोग प्रवृत
कए समस्त संभोग वसन्तहि प्रकृति प्रमत्त भोगवश-चित्त
ग्रीष्महि तपश्चरण-रत मानस वानप्रस्थहि कएल प्रवेश
अपसारण करइत उपकरणक अखिल विषयसँ भेल निवृत्त।11।
परिहरि सहस्त्रांशु-किरण-ज्वालासँ दग्ध-कल्प थल-प्रान्त
शेषक शय्यापाति दून-तन कए पटीर-लेपनसँ शान्त
जलघि-जलहि जलनिधि-सुताक कए कम्बुकण्ठ भुजपाश निबद्ध
निद्रा-मग्न भेलाह ससुव दयिता-उर-लग्न जलधिजा-कान्त।12।
कुलपति-प्रत्यागमनोत्तर छल आश्रम चलल नियम अनुसार
ग्रीष्मक किन्तु प्रभावजन्य श्लश भेल पठन-पाठन व्यापार
अनुशासित कार्यक सम्पादन करइत वटुगण अकलुष-चित्त
अवश शरीर नहि पूर्व जकाँ भए विद्याभ्यास-प्रवृत्त।13।
ऋतु-प्रभाव अनुभव कए कुलपति पाठक भार स्वल्प कए देल
छात्रक क्षमता मत राखब आवश्यक पाठन-पाठव लेल
करइत देल काज तत्पर भए ध्यान राखि कुलपति-आदेश
यथाशक्ति सब करथि शास्त्र-चिन्तन कए ग्रहण गुरूक उपदेश।14।
दाक्षिणत्य ब्राह्मण-वटु सचढ़ सुबुद्धि सुदामा नामक एक
कुलपति रहथि प्रसन्न निरखि तनिकर गुण-बुद्धि-चरित्र-विवेक
निकट बजाए प्रभातहि हुनका कहल, - ‘‘ एक तोहरा गुरू भार
पड़तहु वहन सयत्न भए, करइत सकल अपन व्यापार।15।
यदुकुल-बाल-युगल जे आयल, तोहरासँ किछु अल्प-वयस्क
अनभ्यस्त गुरूकुल-चर्यासँ रहइत अछि किछु अन्यमनस्क
परिहरि राजकुलक सुख सम्प्रति आश्रम-नियमक पालन-लग्न
अनभुआर परिसरमे सहजहिं होएब ओकर चित्त उद्धिग्न।16।
परम भविष्णु उभय वटु, आगाँ निश्चय साधत कर्म महान
जँ अर्जित कए लेअए एतए रहि सदाचारसँ शास्त्रक ज्ञान
नृपकुल-बालक-युगल संग कए राखह ताकि नियम अनुसार
जनइत तोहर चरित्र देल हम तोहरहि तनिक निरीक्षण-भार’’।17।
गद्गद-चित्त सुदामा सत्वर गुरूपद-रेणु शिरहि कए न्यस्त
कृष्ण तथ बलराम संग कए, भए पुष्पादिक चयनहि व्यस्त
आश्रम-निकट कुसुम-संचय कए, आगाँ बढ़ि वन-मध्यहु जोए
सन्दीपनिक देव-पुजार्थ प्रसून-राशि राखल ओरिआए।18।
आश्रमसँ बहार भए कृष्ण देखि फुनगी पर विकसित फूल
चढ़ि सत्वर तोड़थि दर्शित कए तनक लघुत्व प्लवत समतूल
कतहु देखि ???? फल लपकि गाछ चढ़ि त्वरितहि सोत्साह
आनि समीप उपस्थित होथि सुदामा जा वारण करताह।19।