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कृष्ण-चरित / चारिम सर्ग / भाग 2 / तन्त्रनाथ झा

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फूलक राशि देखि संचित सन्दीपनि पूजा-कार्य-निमित्त
पूछि सुदामाकाँ, अवगत कए विषय होथि आहलादित-चित्त
मनहि बिचारथि ‘‘प्रथम कोनहुआ आश्रम-मध्य रहथु ओझड़ाए
सुढिअएता पढ़बहुमे सहजहिं क्रमिक परिस्थितिसँ रितिआए’’।20।
सूनि प्रशंसा गुरूक मुहेँ ओरिआओल फूलक वारंवार
उत्साहित भए कृष्ण पुष्प-संचयमे भए अभोरो दुरबार
मृदित-चित्त कौतुकसँ कए वृक्षारोहण-क्रीड़ा भरि पोख
उचिरहि आश्रम-मध्यहु नियमित रहइत रीति भेलाह निधोख।21।
साहचर्यसँ उपजल कृष्ण-सुदामा-सख्य गाढ़ भए गेल
बि???? काल प्रगढ़ होइत पुनि क्रमसँ बढ़ि प्रगाढ़तर भेल
सज्जन-दुर्जन-मित्रताक थिक एताहश सुविदित परिणाम
दैनन्दिन हो प्रथम सरसतर, अपर होअए नीरस अनुयाम।22।
स्वस्थ-चित्त यदुकुल-कुमारकेँ कुलपित-वेदाभ्यास कराए
प्रथम देल लघु-पाठ कृष्ण से सुनितहि सत्वर देल सुनाए
चकित-चित्त गुरूदेव बिचारल ‘अद्भुत मेघावी ई बाल
बुझि पड़ प्रथम पढ़ल बिस ल जनु, सुनि अवधारण कर तत्काल।23।
पहिलुक पाठ परातहि सुनि पुनि पाठ नवीन द्विगुण कए देल
तकरहु सुनि कण्ठस्थ छनहिमे कुलपति अति आश्चर्यित भेल
दैत कृष्णकेँ पाठ अत्याधिक प्रत्यह ताहि मुखस्थ सुनैत
निरखि अलौकिक मेधा तनिकर चकित होथि देवांश बुझैत।24।
ता’ वर्षाऋतु जानि सन्निकट कुलपतिकाँ विचार ई भेल
इन्धनादि - संग्रह कए राखी आश्रममे बरिसातक लेल
जे कए राखए आगाँ सोचि सुलभ समयहि साधन ओरिआए
दुर्घट समय ससुख से खेपए गृहक कार्यमे चतुर कहाए।25।
देखि सुदामाकाँ अरण्यप्रिय सन्दीपनि कहलैन्हि बजाए
‘‘सम्प्रति एक परम मनलग्गू काज तोरा दै छी संझाए
भए सचेष्ट संग्रह कए आनह इन्धन विपिन-प्रान्तसँ ताकि
आश्रम मध्य सुरक्षित थलमे दुर्दिन हेतुक राखह जाकि।26।
भेटि रहल अछि ग्रहगतिसँ सम्भावित अति - वृष्टिक संकेत
गुरू ओ कुंज उभयक संचारक कारण समुचित रहब सचेत
सम्प्रति सुलभ समिधि - इन्धन वर्षा पड़ितहिं भए जाए अवमोल
समयक गुणेँ वस्तु तुच्छो भए जाइत दुर्लभ आगिक मोल।27।
भेल उल्लसित त्वरित सुदामा कृष्ण आज्ञा देल जनाए
तहिआसँ प्रत्यह अपरा??? दुहू जन लगला कानन जाए
तरू चढ़ि तोड़ि सुखाएल शाखा, कए एकत्र लगाबथि ढेर
बोझ बान्हि आश्रम लए आनथि, राखि ध्यान नहि होइन्हि अबेर।28।
किंशुक, चुत, उदुम्बर प्लक्षादित तरू चढ़ि-चढ़ि समिधि बटोरि
पैघ सुखाएल डारि कुठारहि काटि, तकर - शाखा सब तोड़ि
पातर पातर राखि समिधि लए, मोट मोट जारनक निमित्त
बोझ बान्हि आश्रम उघि आनथि श्रान्त - शरीर प्रफुल्लित - चित्त।29।
कए किछु काल समिधि-संचय पुनि भए समयोचित क्रीड़ा-मग्न
कृष्ण सुदामा समुद विपिन भरि होथि यथारूचि विचरण - लग्न
कए-कए संचय काँच डम्हाएल पाकल फल इच्छा भरि जाथि
उत्तम - उत्तम रीछि कात धए गुरूआइनि - निमित्त लए जाथि।30।
देखि वेणु - वन मध्य अनेक सुखाएल बाँस कृष्ण तत जाए
कए - कए कौशल आनि सुदामकेँ सोल्लास समीप बजाए
कहल - ‘‘जारनक हेतु थीक ई सकल लब्ध - साधनसँ नीक
संग्रह, बहन - सुनकर ओ आँचो एहन निधूम कथूह नहि थीक’’।31।
भए उल्लास - समन्वित कृष्ण सुदामा संचय कए प्रारब्ध
कए आयास बटोरए लगला जते सुखएल छल उपलब्ध
उभय सखा जा करइत संचय कए एकत्र लगाबथि ढेर
अस्तप्राय गेलाह सूर्य भए, सब दिनसँ भए गेल अबेर।32।
समय भेल निर्वात, गरमसँ छल सब जन्तु भेल अवसन्न
मित्र - द्वयक शरीर गेल भए अविरल स्पन्दित घामहि क्लिन्न
ता’ उत्तर - पश्चिम कोणक नभ भेल घोर घनसँ आक्रान्त
सूर्य स्थिति कए देल अगोचर भए मेघावृत अस्त-प्रान्त।33।
कहल सुदाम कृष्णहि - ‘‘ सखे चलह आश्रम अविलम्ब पड़ाए
वायव्यक घनघटा भवावह, देखि गेलहुँ अतिशय अकुलाए
संचित सकल वस्तु ठामहि तजि, चलह , दौड़िआश्रम चल जाइ
छी संत्रस्त विलम्बेँ वन - बिच, चण्ड - वातमे नहि पड़ि जाइ।34।
जा’ सभय उठाबथि प्रथम ड़ेग
ता’ आबि बिहाड़िक प्रबल वेग
कए देल धरा भरि धुलि व्याप्त
नहि रंच-मात्र अवकाश प्राप्त
तड़-तड़ तोड़इत बन-तरूक डारि
कत महावृक्ष जड़िसँ उखारि
उड़बैत सुखाएल पात-ठारि
वृक्षक लुबुधल फल सकल झारि
बहुतो विहगक जीवन हरैत
वृक्षस्थ नीड़ विघटन करैत
करइत पशुगणकेँ शरणहीन
निश्चेष्ट, हतप्रत्याश, दीन
तरू - पादपकेँ भूपर लोटाए
दण्ड - प्रणाम - व्रत जनु कराए
कल्पान्त चण्डवातक समान
भए गेल प्रभंचन प्रवाहमान
वटुक-द्वय-समिधि - राशि
वायुक वन्यामे यथा भासि
नामा मात्रक नहि रहल शेष
बल - दर्पित की पर - आर्ति देख
तिमिरहि सहसा जग देल बोरि
जनु बहल ध्वान्त - नद बान्ह तोड़ि
जन दिग्विभाग नहि सकए बूझि
अपनो कर ककरहु पड़ न सूझि
सब मूनल धूलिक डरेँ आँखि
भए ठाढ़ चरण दृढ़ हो भ राखि
पद रहितहुँ निश्चल पंगु भेल
सब छल आतुर आश्रयक लेल
भेल प्रमंजन तखन घटि परिणत झंझावात
लागल झहरए दृष्टि घन संगहि करकापात।