कृष्ण-चरित / छठम सर्ग / भाग 2 / तन्त्रनाथ झा
एखनहु धरि पड़इछ वृष्टि मूसलाधार
अछि तिमिर-जलधिम मग्न सकल संसार
जा’ धरि न घनाघन-मुक्त व्योम भए जाए
ता’ धरि न हुनक सहाय्यक सुझए उपाए।21।
यदि रहि बिहाड़िसँ बाँचल अक्षत-गात
कए लैत जाथि घन-वृक्षक आश्रय प्राप्त
भए संच-मंच बैसल रहि खेपइत काल
काटथि धए धैर्य शर्वरी ई विकराल।22।
थम्हि ओतहि राति भरि जँ सुसमाहित-चित्त
कए साहस होथि न प्रत्यागमन-प्रवृत
तँ होइतहि तमसावृत - रजनी-अवसान
हम करब हुनक अन्वेषण हेतु प्रयाण’’।23।
भए एताहश चिन्तासँ ग्रस्त नितान्त
बटु-युगलक कुशलक हेतु भेल उद्भ्रान्त
सन्दीपनि भए उन्निद्र गमाओल काल
चिन्ता करइछ निद्रालुताक अपहार।24।
लए करहि गोमुखी करइत जप अविराम
बैसल आसन पर कुलपति सद्गुण-धाम
धएल ध्यान करए लगलाह रात्रि अवसान
ता’ क्रमिक जलदचय नभ तजि कएल प्रयाण।25।
निर्धूल नभहि भास्वर तारा भल शोभ
बादुर-उलूक कर स्वैरगमन निस्तोभ
कर सारमेय - फेरब रव वारंवार
करइतजनु रातुक नीरवता व्याहार।26।
तावत चरणायुध-तीव्र-नाद पड़ि कान
कए देल भंग सन्दीपनि-कुलपति-ध्यान
बुझि रात्रि शेष वटुकगणकाँ संग लगाए
चलला ताकए वटुकद्वय कानन जाए।27।
तरू पर कल कूजन लागल करए विहंग
आरम्भ भेल पशु-गमनागमन-प्रसंग
अलिनिकर कैरवक रजसँ पांशुल भेल
दर-विकव-सरोरूह-कलिकासन्निधि गेल।28।
सुदामाक खन कृष्णक नाम उचारि
दुहुकाँ उच्च - स्वरेँ पुकारि-पुकारि
अन्वेषण करइत तरू-तरू तर ठेकनाए
कुलपतिसँ वटुदल गेल त्वरित अगुआए।29।
वटुगण रहि-रहि अन्योयन्हु करइत सोर
करइत अपनामे वातलाप अथोर
आखेटक यथा नुकाएल पशुकाँ झोड़
कए देल रजनि अवसान’ गेल भए भोर।30।
की रवि कए तिमिरासुरसँ रण अति चण्ड
कए गत्र-गत्र खर चक्रहि खण्ड-पखण्ड
अछि महाकाय-रिपु व्यापदान कए देल
जकरा शोणितसँ प्राची अरूणित मेल?।31।
लखि उदयाच्ल पर प्रगट पùिनी-नाथ
बुझइत अपनाकेँ सम्प्रति भेल सनाथ
अछि कमलिनीक सरसिज मुख विकसित भेल
होइत सुन्दरतम पिअ-मुख कामिनि लेल।32।
रातुक शीतल प्रतिकारक हेतु विहंग
पादक- शाखा पर भेल प्रसारित - अंग
दिनकर - मयूखसँ भेल त्वरित निरूपाय
भए मुदित - चित्त कल-गायन देल उठाए।33।
भूखग - शावक - निकर निशिक खल अकूलाए
आतुल - कण्ठहि जननीकाँ बाजि बजाए
उत्क्रम - निनादसँ व्याप्त करए प्रतिवेश
सुनि उड़ि - उड़ि आबि माए हर तकर कलेश।34।
विस्तारित शावक चंचु-पुटहि दल लोल
दए-दए उड़ि धए आनल भक्ष्य अमोल
पुनि-पुनि कए पोतक तुष्टिक हेतु प्रयत्न
भूखल रहि ताहि खोआबए विहग सयत्न।35।
वन पशु आश्रय - बिल - कन्दरसँ
र्स्वण - प्रातक भानु - किरणमे जाए
करइत विकाल रातुक क्लान्तिक अपनोद
जृम्मण करइछ भए कए स्तर - गात्र समोद।36।
रातुक बिहाड़ि छल देल महीरूह झारि
कए भग्न डारि कत,आमूल उखारि
लुबुधल अंजोह फल झाँटि वृथा छिड़िआए
लुटिहार जेकाँ कानन - सम्पत्ति बुड़ाए।37।
तरूतर पसरल फल सन्निधि कुदइत आबि
मृगशावक सँूधि - सँूधि नहि रोचक पाबि
भए भग्न - आश जनु ताकए जारू कात
लेखा करइत अतिवात - विन्द्य - उत्पात।38।
ता’ आश्रम - वटुवृन्द सुदामा - कृष्ण लगओने संग
हृष्टमना आलाप परस्पर करइत रंग - विरंग
कुलपति - सम्मुख भेला उपस्थित करइत हर्ष - निनाद
कृष्ण - सुदामा सत्वर जाए गहल गुदु - पावन - पाद।39।
गद-गद कंठ, सजल लोचन युग गात पुलकमय भेल
कम्पित कर कुलपति बटुयुगकाँ उरन्यस्त कए लेल
द्रुत -गंभीर आनन्द स्त्रोत बिच भासल, भेल विभोर
वटुकद्वय - कुलपति तीनू जन हग झर नोर अथोर।40।