कृष्ण-चरित / तेसर सर्ग / भाग 1 / तन्त्रनाथ झा
शिशिरक अपगम, ऋतुपति आगम
सन्दीपनि सुसमय अवधारि
चलइत भेला तीर्थ करबा लए
संग लगाए सचढ़ बटु चारि
आश्रम-भार वरिष्ठ छात्र पर
कए अर्पित अनुशासन देल
हिनका कध मानक थिक सभकाँ
हमरा घुरि अएबा धरि लेल।1।
एक-एक केँ शिष्यलोकनिकेँ
निकट बजाए दैत उपदेश
पुछइत पुनि सस्नेह - ‘‘कहू
ककरा लए आनब कोन सनेस?
आश्रम भरिक निरीक्षण करइत
रक्षा हेतु दैत उपदेश
गूनल शुभ यात्राक घड़ीमे
चलला कुलपति बन्दि गणेश।2।
पहिने जएता गयाशीर्ष
करताह पितरकाँ पिण्ड प्रदान
पूजि गदाधर ओतए आबि
काशी नगरी निज जन्म-स्थान
ततए यथारूचि बिलमि, प्रयागहि
जाए कराए क्षौर, एक स्नान
करइत संगम पर तेराति पुनि
हरिद्धार करताह प्रयाण।3।
ततए बिताए करताह
दिन सन्दीपनि करइत सत्संग
करइत मज्जन-पान कलुषहर
सुरसरिता-जल विम-तरंग
प्रतिनिवृत्त यात्रासँ होएता
बाटहि बाट निमन्त्रण पूरि
ग्रीष्मक आगमसँ पहिनहिं ओ
जएता पहुँचि अवन्ती घूरि।4।
आश्रमवासी चलल संग
अरिआतए कए मंगल-अचार
चलि किछु दूर फिराओल सबकाँ
करइत पितृतुल्य व्यवहार
फिरला सबहि तनिक पर-रज
लए, आश्रम आबि भेल अवसन्न
छल सब ततए यथास्थित तैओ
कुलपति बिनु लागए सब सुन्न।5।
यद्यपि आश्रम-कार्य-निरत छल
चलइत चालित यन्त्र-समान
इच्छाशक्ति-विहीन लगै छल
सम्प्रति तदनुरूप निष्प्राण
कुलपति-प्रत्यागमनक आशा
करइत छल प्राणक संचार
करथि सबहि तत्परतापूर्वक
आदेशक पालन-व्यापार।6।
ता उसरए लागल क्रम-क्रमसँ
शिशिरक व्यापक प्रबल प्रसार
होअए लागल ताही त्रमसँ
मधुमासक आगम-संचार
रजनि क्षीणतर दिवस वृद्धि पर
दिनकर-किरणक बढ़ल प्रकर्ष
हिमपातक अवसान भेल
ज्योत्स्नाक भेल उपशम अपकर्ष।7।
लता-गुल्म तरू-विटप सकल
पतझरसँ छल श्रीहत भए गेल
बहराइत किसलयसँ तकरा
ऋतुपति पुनि मंजुल कए देल
हिम-अभिषेक समुण्डन कएकेँ
शिशिर देल संन्यासक मन्त्र
तकरा कएल रागरजिंत पुनि
झट वसन्त गाहि शासन-तन्त्र।8।
जाड़क डरेँ लोक रहइत छल
कएने बन्द रातिभरि द्वार
गरम वसनसँ झाँपि सगर तन
करइत उष्ण वीर्य आहार
तपइत आगि, यथा-वैभव कए
जाड़क उपशम लए उपचार
तूर-तमोल-तेल कम्बल आदिक
करइत यथेच्छ व्यवहार।9।
निर्धन किन्तु बहारहिँ तरूतर
बाधहुमे; खापड़ीमे बैसि
ओछ मैल फाटल ओढ़ना तर
तन समेटि कोनहु विधि पैसि
घूर डाहि तपइत औँघाइत
खेपए झखइत बैसल राति
झुकि पड़ि सम्हरि घूर धधकबइत
होइत शिथिल निन्दसँ माति।10।
निद्रालससँ जखन विवश-तन
बैसल छनहु रहल नहि जाए
मोट पोआरक कएल सेजओट
पर खिनहरि तरमे घोसिआए
तेहन सुनिद्र होअए सत्वर जे
जाड़क क्लेशक होइक न भान
निद्रा थिकथि कल्पतरू लोकक
मानथि सबकाँ एक समान।11।
शीतक भीति पराजित कएकेँ
फोलि रजनि-बिच गृहक दोआरि
देखि चन्द्रिका-चर्चित उपवन
कुसम-मुकुलसँ मण्डित डारि
सूनि कतहु किसलय बिच बैसल
कोकिल रहि-रहि करइत गान
एकसरि पड़लि सेजपर कातर
विरहणीक संशय पड़ ुप्राण।12।
हेमन्तक धानक कटने जे
बाध रहए उदास भए गेल
शिशिर मध्य से रब्बीसँ पुनि
शोभए लागल हरिअर भेल
बढ़ि फुलाए फड़ि से सम्प्रति
कए देल समस्त बाध गुलजार
सस्पृह करथि गृहस्थ ततए
रात्रिन्दिव भए सतर्क संचार।13।
बढ़ो तरू भए किसलय-मण्डिल
लागल शोभए तरूण समान
बहराइत मंजर विकसित भए
कर परिमल मकरन्द प्रदान
पवन - प्रकम्पित बूझि पड़ए ई
ककरहु अछि समीप बजबैत
उपगत- भ्रमरगीकर - कल-गुंजन-
छलसँ मोहन-मन्त्र जपैत।14।
केहन मनोहर लागि रहल अछि
मंजर कतहु ताहिपर बैसि
बहाबए कूजन - पारावार
भ्रमरनिकर करइत कल-गुंजन
आब करए मकरन्दक पान
वितरण करए ओकर मृदु सौरभ
मन्द-मन्द बहइत पवमान।15।
बूट - केराओ - खेसारी आदि
जोआइत मन्त्र खेतमे जाए
माल चरबइत छओड़ा सब
रखबार -गृहस्थक आँखि बचाए
नोचि -नाचि आनए चोराएकेँ
कतहु कातमे आगि पजारि
कए ओरहा बटइत प्रसन्न भए
खाइछ अमृत-तुल्य अवधारि।16।
शिशिर भीत मातंग पड़ाइत
यावत आहट पाबि
तावत त्वरित वसन्त-केशरी
सरभस पहुँचल धाबि
किंशुक-मुकुल प्रखर नखरायुधसँ
कए तीव्र प्रहार
छिटकि पड़ल चौदिशि प्रसून-करि-
लोहित होइत बहार।17।
चढ़लि वनीरथ जोति मलय-हय
अलितति - रश्मि लगाए
किशलय - वसन विकच-कमलानन
सुम - भूषण भरि काय
कुन्दरवनि वसन्त-लक्ष्मी भए
उपगत क्रोधित भेलि
अधर जवा, राजीब नयन
स्मित जाही-जूही-बेलि।18।