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कृष्ण-चरित / दशम सर्ग / भाग 1 / तन्त्रनाथ झा

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पुण्य - प्रभासक पर्णकुटीमे,
कुलपतिकाँ आसीन
अवलोकन कए विनयान्वित
भए उद्धव वचन प्रवीण।
उपन्यस्त करइत
मथुराधिप - संप्रेषित सम्भार
अभिवादन कए लगला कहए
समाद तनिक मितसार।1।
ता’ सन्दीपनि - पत्नी अइली
सुत - कृष्णादिक संग
भेलि प्रहृष्ट पलटि जनु
पाओल पक्ष’ बोहाए विहंग
सत्वर सप्रश्रय उठि उद्धव
तनिक कएल प्ररिचय बुझि
भाषल वचन मधुर - अभिजात।2।
“महाभाग श्रीकृष्ण प्रथित -
यादव - कुल - कैरव चन्द्र
करइत गुरूकुल - वास परूष
शासन कए सहन अतन्द्र।
कए स्वाध्याय निरन्तर
साधि तपस्वी तुल्य शरीर;
उबडुब करइत हमर तरीकेँ
खेबि लगाओ तीर।3।
हो प्रतित थिका भेल
अवतीर्ण कोनो देवांश
हिनकहिसँ हल भेल
क्रूर कर्मा नृशंश-खल कंस
हमरहि एहि विपत्ति -
जलधिसँ करबा हेतु उबार
आश्रम - वटु भए गुरूकुल बसि
कएलन्हि अद्भुत व्यापार’’।4।
सुनि सन्दीपनि हेरि कृष्ण-
मुख सरसीरूह अभिराम
कहल सकल वृतान्त निमित्त
भेल जिज्ञासु प्रकार
“कहि सुनाउ जे घटल
सविस्तार यथा जतए जे भेल
कोन पराक्रम कहलहुँ
गुरू पुत्रक उद्धारक लेल’’।5।
सुनि श्रीकृष्ण विनत - मुखकंज
मुदित लोचन राजीव
दावल रौहिणेय कर नहु - नहु
भए संग चित अतीव
सप्रगल्भ लगलाह कहए
बलराम सविस्तार वृत्त
कान पाथि लगलाह सुनए
सब भए एकायन चित्त।6।
“गुरूपत्नीक करूण परिदेवनसँ
उद्धिग्न नितान्त
चलला गुरूक तुत्रकाँ ताकए
कृष्ण जलधितट - प्रान्त
एक-मात्र हम संग सहायक;
दण्ड - मात्र कर धारि
लगला तनिक करए अन्वेषण
उच्चंे ताम उचारि ।7।
जलधिक कात-कात एवंविध
तकइत आँखि पसारि
 विफलायास श्रमे कातर हम
कहल बैसि मनमारि
 ‘कृष्ण, एतेक दूर चल अएलहुँ
किन्तु व्यर्थ श्रम गेल
कुलपति-पुत्रक कतहु कोनो
वार्Ÿाा गोचर नहि भेल ।8।
उदधि-निमग्न गतांसु भेल अछि,
रहल न शेष उपाय
व्यर्थ आब आगाँ बौआएब
 भए विक्षिप्त-प्राय’
कहल कृष्ण अतिशय विषण्ण
भए आसन ततए जमाए
‘पलटि देखाएब कोना अपन
मुख गुरूपत्नीकें जाए।9।
प्राणाहुति दए करब
सिन्धुसँ गुरू-पुत्रक उद्धार
त्याग करब प्रायोपवेश
कए बरू असार संसार
कुम्भोद्भवसँ मन्त्र सीखि
सोखब खल-जलधि अपार
नहि कए सकत दुष्टमति
सागर पुनि एहन व्यापार।10।
युरूषक संकल्पक समक्ष
की गिरि की सिन्धु गंभीर
दृढ़ता करए शेष-हिअ कम्पित,
धरणी होथि अधीर
क्षत्रिय-जातिक हेतु विहित
थिक शस्त्रास्त्रैक प्रयोग
अग्निबाणसँ क्षुब्ध उदधि
भोगओ अपकर्मक भोग ।11।
सिन्धूदरसँ आनि पुत्र
गुरू-पत्नीकाँ सुंझाए
देव आइ मदमŸा जलधिकाँ
भल हम पाठ पढ़ाए’
कहइत एहि प्रकार कृष्ण
झट गहल रौद्र-रस-रूप
 गहल तनिक राजीव-नयन
युग तप्त-सवर्ण-स्वरूप।12।
ता’ नहु-नह विचरण करइत
अएलाह एक जन वृद्ध
श्वेत-वस्त्र, यज्ञोपवीत,
धवलित कच-कूर्च-प्रवृद्ध
छत्र-कमण्डलु धारण कएने;
कर गहि वैष्णव दण्ड
चन्दन-चर्चित गौर कलेवर;
भालहि तिलक त्रिपुण्ड।13।
आबि समीप परेखि कुष्णकाँ
तादृश प्रकुपित भेल
पूछल-कोन कारणेँ छी
क्रोधेँ आतुर भए गेल
क्रोध-तुल्य नहि प्रबल शत्रु
लोकक त्रिलोकमे आन
क्रोधान्वित भए भए जाइछ
मानव दानवक समान ।14।
क्रोध करैछ विवेकक
मंजुल विटपक मूलोच्छेद
करइछ हरण चतुष्पद पशु
ओ द्विपद मनुष्यक भेद
प्रकुपित लोकक हेतु जाथि
भए स्वजनो आन समान
शरीरस्थ रिपु क्रोध
भाषाए शास्त्र - पुराण’ ।15।
स्थविरक वचन श्रवण कए
कृष्ण कहल सविनय भय शान्त
गुरू-पुत्रक प्रसंग आजुक
समस्त दुर्घट वृत्तान्त
आबि समीप स्निग्ध - संवेदन
पुनि - पुनि अपन जनाए
मन्द - मन्द गम्भीर - स्वरसँ
लगला कहए बुझाए।16।
‘जलधिक दुर्गम कूलक सन्निधि
आछि अति क्षुद्र - दीप
जतए निवास कर्रछ पंच-
जन नामक असुर महीप
ताहश द्वीपान्तरमे राखल
निशिचर - निकर बसाए
ओकरा भयेँ रहए सातंक
प्रभासक जन - समुदाय।17।
रहए अनुक्षण दनुज - दस्यु
सागर - तटपर प्रच्छन्न
अवसर पाबि जाए लए
अपहरि लोकक पशु - अन्न
अनवाधन पबितहिं लोकहुकाँ
पकड़ि - पकड़ि लए जाए
कए वध करए उदर - पोषण
वा राखए दास बनाए।18।