कृष्ण-चरित / दशम सर्ग / भाग 2 / तन्त्रनाथ झा
उदधि - दस्यु भयसँ भए
गेल रूद्ध सागर - संचार
व्यस्त भेल जलयानाश्रित
जलनिधि - कूलक व्यापार
सागर - तीरक नगर - निवासी
रहइछ सतत सशंक
कखन सकल धन - विभव
दस्युदल लूटि बनाओत रंक।19।
अछि अहाँक गुरू - पुत्रहुकाँ
हरि ओ नृशंस लए गेल
थिक सत्वर उद्योग विहित
तनिकर उद्धारक लेल
भए कटिबद्ध करू सोत्साह
विजय - यात्रा अविलम्ब
सुरगण होथु सहाय
मनोरथ पूरथू शंकर साम्ब’।20।
कहि उत्साहि त करइत जाए
संग भए बाट देखाए
कहल - ‘एखन होएत ओ
सूतल आसब पीबि अवाए
पृथुल शंख द्वार - स्थित देखब’
लपकि त्वरित गहि लेब
शंखनाद करबाक ओहि खलकेँ
नहि अवसर देब।21।
पंचजनक शंख निनाद
सुनितहिं झट आबि सहाय
होइछ सायुध लघु-द्वीप-
वासी दानव-समुदाय’
परिधद्वय देखाए पुनि कहलन्हि
‘ई कर गहि लए जाअ
शुभ - शुभ कए यात्रा कए
सत्वर विजय - लाभ कए आउ’।22।
छल पथ सिन्धु - तरंग - निमज्जित
अति पिच्छर - संकीर्ण
अगणित - सर्प - शक्ति - शम्बूक-
नक्र - झप - कम्बु - विकीर्ण
तिमिरावृत पंकिल मार्गक
प्रचुरोपल शल्याकार
चरण विद्ध कए शोणिताक्त
करइत छल वारंवार ।23।
सावधान चलइत प्रहरोपरि
दुस्तर पथ कए पार
कएल दृष्टिगोचर सिन्धुस्थ
पंचजन - दैत्यागार
छल तिर्लोक द्वार पर
देखल राख शंख विशाल
वृद्धक वचन हृदय धए कृष्ण
लेल कर गहि तत्काल।24।
दारूण रूप पंचजन - दानव
छल निद्रित हृत - चेत
छल समक्षमे पड़ल भरल
मद्यक घट चषक - समेत
कृष्ण परिघसँ ठेलि प्रसुप्त
दनुजकेँ देल जगाए
पूछल, ‘गुरूक पुत्र धए अनहल;
रखलह कतहु नुकाए?’।25।
देखि ततए गृह-मध्य अतर्कित
उपगत सहज सहज सपत्न
शंख - ग्रहण - निमित्त पंचजन
सत्वर भेल सयत्न
भग्नायास मनोहत दानव
क्षण भरि विस्मित भेल
सम्हरि त्वरित गुरू-भार
शिला क्रोधतुर भए गहि लेल।26।
फेकल शिला कृष्णपर
खर-गर्जन करइत अजमाए
शौरि चपल - गति तड़पि
हसित - मुख लेल प्रहार बचाए
तखन गदा गहि हमरा पर
झपटल करइत चीत्कार
परिध सम्हारि कएल आघातक
हम अवहित प्रतिकार।27।
भए अभिहत हमरा तजि
दानव कृष्णक दिशि अगुआए
खर-गर्जन कए पृथुल गदा
गहि फेकल त्वरित घुमाए
काल - दण्ड सम दारूण
तकरा देखइत अविचल भेल
रोकि परिधसँ कृष्ण गदाकेँ
खण्ड - खण्ड कए देल।28।
कएल परिधसँ कृष्ण दनुज-
मस्तक पर चण्ड प्रहार
चूर्णशीर्ष भूलुण्ठित भए
ओ भेल कबन्धाकर
तेजि ताहि ताहि विधि ततहि
पड़ल व्यापादित भेल
गुरू - पुत्रक अन्वेषण कए
बन्धन - मोचन कए देल।29।
विहसित सुधा - मयुष -
विमण्डित वदन - सुधांशु ललाम
हर्ष - सलिल - मकरन्द - प्रपूरित
नयन - कंज अभिराम
स्वेद भरल पुलकित - तन
मोहन गुरू - सुत - कान्ह चढ़ाए
चलला बजइत - “ गुरूआइनिकेँ
दिअन्हु पुत्र सुझाए’’।30।
सन्तरि दुर्गम पथ, पटवर्ती
सुगम मार्ग कए प्राप्त
कृष्ण सकौतुक कएल
निनादित शंख दनु - जगृह - प्राप्त
सुनितहि पंचजनक दायाद
नाओ चढ़ि आयुध - पाणि
आबए लागल क्षिप्र - वेगसँ
शंखक नाद ठेकानि।31।
ता’ उल्लसित - चित्त द्रुतगतिसँ
दुर्गम पथ कए पार
कहल कृष्ण्काँ - “बढ़ु अहाँ
लए गुरू सुत बहुअत भार
खल संकल थल परिहरि
अहाँ जाउ आगाँ अगुआए
एकसर खलदलकाँ हम
सत्वर यमपुर देब पठाए।32।
भेल सकल दानव एकत्रित
जलधि - कूल - थल आबि
यमदण्डोपम परिध हाथ गहि
भल अवसर हम पावि
एक- एककेँ कएल
पंचजन - दायादक संहार
देल सिन्धुकाँ सकल सिन्धु-
दस्युक शव कए उपहार।33।
अनुजक संग मिलित भए
कए झट चपल चरण पद शेष
गुरू - पत्नीक पुत्र सुंझाओल
आशिष पाबि अशेष
भेल विषम दुर्घटना सुघटित;
भेल सिंधु-तट मुक्त
भेल पंचजन - जयी
कृष्ण-कर पांचजन्यसँ युक्त।’’।34।
सुनि-सुनि सन्दीपनि कुलपति
बलराम कथित वृत्तान्त
अश्रु भरल दृग, रूद्ध कण्ठ,
भए भाव विभोर नितान्त
दैत कृष्ण-बलरामक शिर
पर कर धए आशीर्वाद
मथुराधिपक हेतु उद्धवकाँ
लगला कहए समाद।35।
“गुरूकुल - मध्य वास करइत
कए शासन अंगीकार
यादव - कुल सरसीरूह - मुकुल
कुमारद्वय सुकुमार
कर्मनिष्ठ भए अरजि
एतए सश्रम विद्या पर्याप्त
कएल कुलोचित वेद तथा
वेदांगक पाठा समाप्त।36।
मथुरा - धरणीपालकाँ
आशिष हमर गुरूदक्षिणा
पहिनहिँ देल चुकाए।37।
यदुकुल -युगल कुमारकेँ
संग - संग लए जाए
शूरात्मजकाँ देब अहँ;
पुत्र - युगल सुनझाए’’।38।
गुरूक वचन सुनि कृष्ण तथा बलराम
चरण-कमल पड़ि कएल सभाक्ति प्रणाम
रूद्ध-कण्ठ भए भेल न वचन उचारि
देल नयन- जललँ पद - पद्म पखारि।39।