कृष्ण-चरित / नवम सर्ग / भाग 2 / तन्त्रनाथ झा
हरित शस्य परिपूर्ण, समृद्ध अपार
मंजुल मालव प्रानत कएल भल पार
कएलप्रवेश तखन आनर्त्त-प्रदेश
वृद्ध तुल्य उत्फुल्ल तूल शिर केश।19।
आबि शुक्तिमत गिरि पथ दुंगम भेल
शृजु सम, कुटिल विषम सम्प्रति भए गेल
श्वापद संकुल शैल, बहुल दर युक्त
पुण्य प्रवासक प्रहरी यथा नियुक्त।20।
शैलारोहण कए, लखि जलधि अपार
कए अवगत कए लेले दूर पथ पार
भेल गतश्रम जनु कएलन्हि पथ शेष
लक्ष्य - सिद्धि कर क्लम अपनोद विशेष।21।
उच्छ्रित - द्रुतमय हरित जलधि तट प्रान्त
भासित यथा जटित मरकत - मणि कान्त
ताल तमाल नारिकेरक तरू-पंुज
यत्र तत्र छल पूंगी कदली कंज।23।
जंगम गिरि सम उठि उठि जलनिधि वीचि
हो प्रत्यावर्तित पुनि तटकेँ सीचि
शुक्ति कम्बू शम्बूकादिकक प्रसार
हो पिशिताशन विहगादिक आहार।24।
भरल सरस जल छल तत कुण्ड अनेक
निर्मित जकर निकट छल उटज कतेक
सांसारिक बन्धन श्लथ कए बहराए
जतए लोक परलोकक करए उपाय।25।
रथ तजि उद्धव विचरण कए भए श्रान्त
ताकल सन्दीपनिक निवास प्रशान्त
देखल वेदी बिच तनिका आसीन
लोचन मूनि गूढ़ चिन्तनमे लीन।26।
एक मात्र वटु बैसल छल हटि कात
उद्धव तनिका कहि निज परिचय पात
पूछज, “कतए गेलाह कृष्ण बलराम?
करिअनु कखन चरण गहि मुनिक प्रणाम।27।
कए निर्देश वटुक लघु उटज देखाए
कहल, “ओतए विश्राम करिए गए जाए
छलहुँ सबहु यद्यपि भल स्वस्थ प्रसन्न
अछि सम्प्रति आश्रम भए गेल विपन्न’’।28।
ई कहि वटुक रूद्ध मुख सहसा भेल
कए कए घटना स्मरण विकलभए गेल
लेल सजल लोचन युग करसँ झाँपि
उठल सशंक उद्धवक उर थल काँपि।29।
वटुक उद्धवक चितस्थिति अनुमानि
कहल - “ कृष्ण - बलराम कतए नहि जानि
व्यथित चित्त छथि कतहु समीपहि गेल
अछि आश्रम विक्लवसँ अस्थिर भेल।30।
कुलपतिक पुत्र मेधावी, परम सुगात्र
वयसक अनुकूल कौतुकी, स्नेहक पात्र
सागर तट प्रात स्नान करए छल गेल
किन्तु अभाग्येँ ओतहि लुप्त भए गेल।31।
शंकासँ व्याकुल भेल लोक समुदाय
की डुबि गेल ओ सागरमे भसिआए
दिशि - दिशि अन्वेषण कए भए विफलायास
ओकरासँ सम्प्रति सब भए गेल निराश।32।
गुरू पत्नीकाँ लखि जल विनु मीन समान
भए भए भूलुण्ठित भए जाइत अज्ञान
सब मिलि तनिक अछि सोमपीठ लए गेल
हररहि पर एतएक भार निहित अछि भेल।33।
प्रायः कृष्णो बलराम संग छथि गेल
पड़ि एहि परिस्थितिमे अति व्याकुल भेल
निष्फल पुरूषार्थ, लोक भए जाइछ बाध्य
नहि विधिक विधानक टारब ककरो साध्य।34।
ता’ चकित चित्त भए चारू कात निहारि
उच्च स्वरसँ कुलपति वटु नाम पुकारि
पृछल - “देखह, श्रुति सुखद निनाद करैत
के अछि अबैत सोल्लास शंख बजबैत?।35।
भए त्वरित अग्रसर अवहित चित्त अकानि
अवलोकि भेल आह्लादित मंगल जानि
घन लखि नचइत जनु मानस मुदित मयूर
कुलपतिकाँ कहल ओतएसँ करइत सोर।36।
“देक्षिण कर धए पृथुल शंख अविरत ध्वनि करइत
वामहि कर गुरू - पुत्र कान्ह धए द्रुतपद अबइत
तन नूतन पयोद रूचि झरइत अनुखन जलकण
पूर्ण सुधाकर वदन शोतम फ्टल विमोचन
छथि अबइत मत्त गजेन्द्र-गति
श्री कृष्णचन्द्र, यदुकुल कमल
तनिकहि शंखक कलनादसँ
अछि मुखरित भेल परिसर सकल’’।37।