कृष्ण-चरित / पहिल सर्ग / भाग 1 / तन्त्रनाथ झा
दुर्गा-माधव, गणपतिक वन्दि चरण अरदिन्द
कृष्ण-चरित रचना करथि विन सभाक्ति ‘मुकुन्द’।
पुनि पुनि वन्दिअ गणपति - चरण
विघ्न विनाशि देथु मोहि शरण
हमर प्रयास सफल कए देथु
बाधा सकल हरण कए लेथु
देवि सरस्वति पुनि गोहराबिअ
हुनक चरण पर ध्यान लगाबिअ
अछि अभिलाष करब कविकर्म
बधु - जन जानथि एकरो मर्म
हरि - चर्चामे समय बिताएब
जहिना तहिना हरि-गुण गायब
तेँ सम्प्रति ठानल ई काज
आशिष बितरथु सुधी - समाज
विस्तृत हरिक चरित्र अगाध
हम मति - मन्द, पुरत की साध
होइत अछि तैओ विश्वास
हरि - नामक गुण पुरत आस
टेढ़ोअुढ़ सुअन्नसँ जेँ निर्मित पकवान
लगइत अछि रूचिगर परम ग्रहण करथि अतिमान।
सज्जनकाँ होएत सन्तोष
तनिक स्वभाव उपेषब दोष
राजहंस सन हुनक स्वभाब
फेटल दूध - पानि बिलगाब
सन्त - महीरूह - छाह सुठाम
आतप - तापित कर विश्राम
सज्जन - हृदय बरक समतूल
द्रबि कर परक ताप अनुकूल
दुर्जन - माछी होएता तुष्ट
चालनि - रूप तनिक व्यापार
चोकर धरब, उपेखब सार ,
जनिका छन्हि लगइत ई तीत
हमर प्रयास न तनिक निमित्त
हरि - चरितामृत जलधि थिक अगम अगाध अपार
कुदइत छी हम ताहि बिच डुबनहुँ उतरब पार।
कुलपति सन्दीपनि मुनि नाम
आश्रम हुनक परम अभिराम
तृण - काष्ठहि गृह निर्मित भेल
वन - पत्रसँ छारल गेल
गोमयसँ नीपल सब ठाम
परम पवित्र स्वच्छ ई धाम
टाट लगाओल खरही काटि
लेबल - गोबर - चिक्कनि माटि
विपिन बीच आश्रय अछि शान्त
चौदिश निरूपद्रव ई प्रान्त
रोपल विविध प्रकार फूल
भालसरी - पाँड़रि - बकहूल
सिङरहार - कचनार - नेबारि
रहए फूल लुबुधल भरि डारि
नागेश्वर - चम्पा - सोनहूल
लंकेश्वर - मधुरी - ओड़हूल
तगर केतकी ओ करवीर
देखि जुड़ए नयन भए थीर
गन्धराज -थलकमल फुलाएल
देखि ककर नहि नयन लोभाएल
सुरभित इन्द्रकमल ओ कुन्द
तगरी वंशी-प्रेम अमन्द
देखितहि बनए कनैलक कुंज
मधुकर लुबुधल पुंजक पुंज
परम सोहाओन फूल गुलाब
लोचन निरखि टरए नहि पाब
गेना, तीरा तथा चमेली
चन्द्रकला जूही ओ बेली
बरमसिआक अनेक प्रकार
विकच समैआ ऋतु - अनुसार
आक, धथूर, दनूफ; कुमुदिनी
रजनीगन्धा तथा कामिनी
सर्वजयाक अनेक प्रकार
शोभित सूर्यमुखी भकरार
अनुपम फूल - पात ओ डारि
गाछ गुलेँचक रोपत मारि
सोभए ततए अशोक बकैनि
बेल, अगस्ति, कदम ओ सैनि
अपराजिता लता छल लतरल
कतहु लवणलता छल पसरल
मोतीझाबा झबरल फूल
कतहु मालती नमरल झूल
मेहदी, मेघडुम्मरि ओ दहिगन
करए माधवी पर अलि गुंजन
महमह करइत बहए बसात
करइत मुनिक सुयश प्रख्यात
प्रत्यह वटुगण होइत परात
तुलसी - दूबि फूल बलपात
तोड़ि तोड़ि आश्रम लए जाए
पूजा लए राखथि ओरिआए
प्रकृति-नटीक प्रसाधनक जनु सज्जित भाण्डार
अछि संचित आमोदमय विविध-वर्ण सम्भार।
रहय पहाड़ समीपहि एक
लघु झरना छल ततए अनेक
जल बहि बहि नीचाँ दिशि अबइत
सोती भएकेँ छल तत बहइत
लघु दल धार, पानि अति निर्मल
वर्षो भरि बहइत रहइत छल
लोक स्नान कए पीबि अघाए
काजेँ जल भरि - भरि लए जाए
बहि-बहि ढबकि कतहु जल गेल
ठाम-ठाम डाबर भए गेल
जललत्ती सब छारल ताहि
बिहरए पशु-पक्षी अवगाहि
भेँट-कुमुदिनी राति फुलाए
दिनमे कमल विकसि भरि जाए
उज्जर-लाल फूल भकरार
सुन्दरता के वरनए पार
बड़री, भेँट, बिसाँढ़ अमन्द
सारूक, घेंचुल, करहर, कन्द
अति स्वादिष्ट सिंघार-मखान
कात-कातमे ओइरी धान
स्वयं उपजि भगवानक चास
महिमा हुनकर करए प्रकाश
बटुक-वृन्द आश्रमस जाए
संग्रह कए कएकेँ लए जाए
आश्रमवासी खाथि जोगाए
संचय कए राखथि ओरिआए