कृष्ण-चरित / पाँचम सर्ग / भाग 2 / तन्त्रनाथ झा
भए तीव्र बुभुक्षासँ व्याकुल
सोचय मन-मन ओ भए आतुर।
‘‘निर्जन अटवीक निशीथ विकट
पल-पल सम्भाव्य प्राण-संकट।26।
आहार - प्राप्ति सम्प्रति असाध्य
की करब क्षुधासँ भेल वाध्य।
भूखेँ सम्प्रति छी विकल भेल
अक्षम भिनसर धरि थम्हल लेल।27।
भखेँ औनाइत एतदर्थ
छी भेल एन हत्बुद्धि व्यर्थ।
कृपणक समान धनराशि संग
भिक्षा करइत सुनि काकु-व्यंग्य।28।
कएलहुँ फल-संग्रह कते रास
ताहिसँ लए दूचारि ग्रास।
उदरक ज्वालाकेँ नितान्त’’।29।
तोड़ल फलकेँ टकटोरि आनि
उत्तम भोजन-सम्भार मानि।
धएलम्हि समक्ष आह्लादेँ भरि
फुटहो सराह भूखल नृप धरि।30।
छल एक छोटा कदलीक घौर
महमह करइत पाकल महोर।
अति लोकभनीय, भए पीतवर्ण
जनि रचल सुगन्धित कए सुवर्ण।31।
पाकल-पाकल टोबइत परेखि
पीयूषहुसँ सुस्वादु लेखि
कए फलाहार झट सोहि - सोहि
सुतल कुष्णक मुख जोहि - जोहि।32।
जठरहि जनु हवन-प्रवृत्त भेल
पूर्णाहुति अन्तिम फलक देल।
छल अन्त्यकवल मुख भरल जखन
कृष्णो जाग्रत भए बैसि तखन।33।
हँसि देखि सधन कदली समस्त
बजलाह जेना भए क्षुआ-ग्रस्त।
‘‘रम्भाफल सबटा लेल खाए
हमरा लए नहि राखल बचाए।34।
दुइओ छिम्भरि तँ दितहुँ छोड़ि
वा लितहुँ संग कए निन्द तोड़ि’’
भए गेल सुदामा अति लज्जित
अनुपात; उदधिमे जनु मज्जित।35।
नतमुख भए कृष्णक धएल हाथ
बजलाह - ‘‘अहाँसँ कोन लाथ
भए तीव्र क्षुधासँ गतविवेक
करइछ मनुष्य पातक केतक।36।
लखि गाढ़ सुनिद्रा मध्य मग्न
नहि कएल अहाँक सुषुप्ति भग्न।
खएनहुँ अशेष नहि तृप्ति भेल
किछुओ तेँ नहि म छाड़ि देल।37।
अनुचित अतिशय ई भेल काज
हमरा बड़ होइछ एकर लाज’’।
अनुतापालसँ दग्ध प्राण
अवलोकि सुदामा - वदन म्लान।38।
कए तनिक प्रबोधन कहल कृष्ण
‘‘नहि छी हम अणु-मात्रो सतृष्ण।
उपभोगि सुनिद्रा विगत-क्लम
छी सम्प्रति भेल निरामय हम।39।
कएलहुँ अछि हम परिहास मात्र
नहि थिकथि कुत्साक पात्र
एकसर जागल सहि परम कष्ट
हमरहु रक्षा पर राखि हष्टि।40।
उद्विग्न - चित्त करइत उपाय
छी रहल एहि विधि निशि बिताए।
अछि संग अहँक स्मरणीय भेल
मिलि दुस्तर रजनी खेपि लेल।41।
आचरण सहोदर-तुल्य श्लाध्य
आजीवन हमरा करत बाध्य’’
एवंविध वार्त्तालाप-निरत भए युगल बन्धु
करइत सन्तरण सुदुस्तर रजनी-क्षुब्ध-सिन्धु
वनचर-पशु-पक्षि निकर कलरव सुनि सन्तर्पित
प्राची-प्रकाश लखि भेला उभय जन परम मुदित।
यादृश मयुर लखि वारिवाह, कैरव शशांक
जलधर-धारा-सम्पातहि हो सफरी हुलसित
लखि उषाकाल मुख कमल भेल उभयक विकसित।
ता’ पड़ल कान बहुतो लोकक आलाप-ध्वनि
विचरण करइत वन-प्रान्त अग्रसर अभिमुख जनि
भए सावधान संक कुल-मानस सुनि अकानि
सत्वर उठि ठाढ़ सुदामा कृष्ण धएल पाणि।
अवलोकि सुदामाकेँ एवविध आतंकि
हैसि कहल कृष्ण - ‘‘छी सखे व्यर्थ सम्प्रति शंकित
तक्रक पड़ितहिं क्षीरक समान धन समस्तोम
अछि फाटि रहल, अरूणित अछि प्राचा दिशक व्योम।
तिमिरक आवरणहि दस्यु-पारिपंथिक संचर
होइतहिं प्रकाश भए जाए अलक्षित पाटच्चर
पेचक समान महि दिवसक आभा करए सह्य।
अछि लोक-विदित चोरक इजोत होइछ असह्य।
परिसर भरि छैन्हि कुलपतिक प्रताप प्रबल
आश्रम लोककेँ हुनक नाम बड़का संबल
चिन्हितहिं क्रासे दुर्वत्त छोड़ि पथ जाए पृथक
गरूड़क नामे सुनि फणधर होइछ नतमस्तक।’’
शंकित - चित्त सुदामाकाँ
एंव - प्रकार आश्वासन दैत
धृतिमत कृष्ण अबैत लोकनिक
बाजब दल ध्यान सुनैत
कहल-‘‘सखे!परिचित कण्ठस्वर
सम्प्रति सुनि पड़इत अछि कान
भीत छलहुँ जकरासँ से थिक
रोगार्तक भैषज्य समान।’’