कृष्ण-चरित / बारहम सर्ग / भाग 1 / तन्त्रनाथ झा
तुरग यान सज्जित कए उद्धव
कृष्ण रामकेँ संग लगाए
मथु रागमन हेतु प्रस्तुत
गुरूपत्नीक निकट लए जाए।
कहल, “एक जनि राखल हिनका
उदय-मध्य नओ मास जोगाए
आकौमार्य अपर परिपालल
अहाँ भेलहुँ पुनि तेसरि माए।1।
छमि असंख्य अपराध हिनक
दए आशिष जीवन संवल रूप
देवि, सहर्ष दिऐन्हि अनुज्ञा
दए पद रज पाथेय - स्वरूप।’’
कुल पति-पत्नी नोरहि सिंचन
करइत युगल किशोरक माथ
सत्वर हृदय लगाए लेल पुनि
कहल तनिक शिरपर धए हाथ।2।
“जाह, कृष्ण-बलराम, जाह झट,
जननी-नयन जुड़ाबह जाए
पुत्रक हेतु विकलता माइक
जानए केवल जे थिक माए
गबइत रहब तोहर गुण अविरल
जा धरि रहत देहमे प्राण
जतए रहह रखने धरि रहिहह
हृदयमध्य हमरहु लए स्थान’’।3।
ई कहि रूद्धकण्ठ भए उठली कानि
लेल वदन निज झाँपि जोड़ि युग पाणि।4।
आसन तजि कुलपति तखन स्वयं ततए अएलाह
रामकृष्णकेँ निकट कए, मन्द-मन्द बजलाह।5।
“भए कृतविद्य एतएसँ
चललहुँ अपन निकेतन आज
जतए रहि, करइत आजीवन
रहब कुलोचित काज
करइत रहब उजागर अनुखन,
एहि आश्रमक नाम
बुद्धि-विवेक कला - कौशलसँ
अर्जन करब सुनाम’’।6।
द्वैपायन - गुरू - चरण देखि
बढ़इत दुरबार अनीति
कए लक्षित युगसन्धि - मध्य
नृपगणक अनार्य - प्रवृत्ति
कहल - “लोक - संग्रह कए
एकरा सत्वर रोकक थीक
अछि तदथँ गुरूकुल संचालनसँ
साधन नहि नीक।7।
अभिप्रेत यदि हो समाज - कल्याण
करो ततए ताहश शिक्षाक विधान।8।
ऋजुमति बाल - हृदय बिच बीज खसए
लेब यथेच्छ शस्य सहजहिँ उपजाए।9।
बाल - वृन्द बढ़ि होएत सैन्य अजेय
दुर्गम दुर्ग जीति परिपूरत व्येय।10।
जँ समुचित शिक्षा बालककाँ देब
अविनाशी उपलब्धि सुलभ कए लेब।11।
जातिक सन्तानक चरित्र - निर्माण
रूग्ण - समाज - हेतु भैषज्य - समान।12।
जन्मभूमि काशीमे लगलहुँ
करए काज उपदिष्ट
किन्तु देल बाध मगधाधिप
पूर्ण न भेल अभीष्ट
भए चार्वाक - मतेँ
सप्रेरित जरासंध - मगधेश
रहथि यत्नपर रहए
न पाए आर्य संस्कृतिक लेश।13।
आर्यवृत्त नृपगणक विजय
कए दए दए कारावास
करइत रहथि सभ्यतोन्मूलन-
हेतु सदैव प्रयास
गुरूचरणक अनुकम्पेँ एतएक
नृपतिक आश्रय पाबि
कएलहुँ ई गुरूकुल संस्थापित
एहि ठाम पुनि आबि।14।
पुरू कर्मक गौरव परम थिम शिष्यक उत्कर्ष।
केशरिसँ काश्मीरकेँ प्राप्त प्रकर्ष।15।