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कृष्ण-चरित / बारहम सर्ग / भाग 2 / तन्त्रनाथ झा

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थमन पाशसँ गुरू सुत आनि छोड़ाए
देल पाशर्स गुरू सुत आनि छोड़ाए
देल दक्षिणा पहिनहिँ अहाँ चुकाए
पांचजन्य तकरे स्मारक गहि लेल
रहत दिगन्त तकर ध्वनि गुजिंत भेल।16।
अछि सुविदित हमर अहैक बुद्धि, विवेक, प्रशस्ति।
करब कार्य परिणत अहाँ सतत हमर ई उक्ति।17।
थिक शाश्वत धर्मक संरक्षण प्राणपणेँ करबाक
अखिल कौशलेँ थीक आसुरी - शक्ति दमित रखबाक
कुटिल विषम संशयमय जीवन पथ पर कए अभियान
सावधान भए राखब अचल लक्ष्य पर केन्द्रिय ध्यान।18।
जे उदार - चेता कौटुम्बिक
परिधिक कए विस्तार
करथि दीन - दुर्गत - विपन्न
लोकक क्लेशक अपहार
तनिक कृतिक तुलना की पाओत
कानन बसि तप काज
तनिका निर्जर कल्प ग्रहण
कए पूजए सकल समाज।19।
करब लोक कल्याण
ताहि हेतु अवतरथि धरा पर
धए नर तन भगवान
एताहश व्यक्ति यशसँ
सुरभित भए जाए दिगन्त
सदाचार प्रचरित भए
करए दानवी वृत्तिक अन्त।20।
माया मोहादिक कुटिल जाल अपसारि
कर्त्तव्य पथसँ क्षुद्र स्वार्थक टारि
मानव - कल्याणक कए क्रमबद्ध प्रयास
हरि लेब नाशि खल आर्य वृत्त सन्त्रास।21।
कए कठोर शासन करइत
छात्रक चरित्र निर्माण
कखनहुँ मृदु कखनहुँ भए
पौरूष करत निर्मित विद्वान
सुनियोजित राखब कौशलसँ
बालक सहज प्रवृत्ति
व्यग्र परक पुत्रक चिन्तास
परम कठिन गुरू - वृत्ति।22।
अनुशासन करइत कएल जे अप्रिय व्यवहार।
अस्वस्थक भैषज्य सम तकरा करब विचार।23।
कृष्ण चन्द्र यश चन्द्रिका धवलि करओ दिगन्त।
हो विकसित सज्जन कुमुद, असुर - वृत्ति तम अंत’’।24।
कुलपति हृदय साधि तप छल मरू भेल
वत्सलतासँ किनतु सजल भए गेल।
चरण पड़ल किशोर युग हृदय लगाए
रथपर कर धए अपनहि देल चढ़ाए।25।
रथ चढ़ि देवश्रवा - कृष्ण बलदेव
शोभित यथा अवनि अवतीर्ण त्रिदेव।
धए नरतनजनु दुष्कृति नाशक हेतु
फरराबए पुनि महिपर धर्मक केतु।26।
कनक प्रभ बलराम, श्याम
नव घन तन सुन्दर
रथ चढ़ि कएल प्रयाण
तुरंगम गति कए मन्थर
निर्निमेष गुरू - दम्पति
सहचरगण दिशि तकइत
जनु प्रवेश समवेत
जनक उर - अन्तर करइत
उच्चेँ कएलन्हि उद्घोष सब-
हो पथ शुभमय कल्याण कर।
गहि पांचजन्य कलनाथ कए
कएलैन्हि प्रतिग्रह हरि तकर।27।
मुखरित भेल दिगन्त, कृष्णक शंख निनादसँ
अपसारित भए ध्वान्त, भेल लोक मानस विमल।28।


-इति-
नग निधि वसु शशि शक सभा ज्येष्ठ असित अहि जीव
अरपल ई कृष्ण चरण, प्रणत मुकुन्द अतीव।