कृष्ण-चरित / सातम सर्ग / भाग 1 / तन्त्रनाथ झा
चढ़ि समीर रथ उमड़ल जलधर विपुलवाहिनी साजि
जीमूत-ध्वनि पहट, बलाका श्वेत - पताका राजि
दामिनी - द्युति विकोष करवाल, शक्ति - पट्टिश शित-धार
दृढ़ संकल्प करब जन पीड़क रिपु निदाघ - संहार।1।
अविरल वृष्टि - विशिख वर्षण कए अशनिपात - संघात
विकच कदम्ब केतकी अर्जुन सर्ज सुसज्जित गात
नृत्य निरत मयूर संसेवित, दर्दुर कृत गुण-गान
इन्द्र चाप कर प्रावृष नृपवर कएल युद्ध अभियान।2।
आतप तप्त लहि सुखकर धाराधर धन धार
छाड़ल उष्ण दीर्घ निश्वास वीतचित बारंबार
सरल ऋतुक स्वागत हेतु सत्वर सज्जित भए गेलि
पहिरि हरित परिधान मसृण भल वासकसज्जा भेलि।3।
सुनितहिं जलदऋतुक आगमनध्वनि निदाघ अकुलाए
निर्वात स्थल ताकि त्रस्त भए सत्वर रहल नुकाए
क्षणदा - तस्कर वर्ति बारि तकइत प्रच्छन्न सपत्न
भए उल्लसित करए प्रावृष परिपन्थि - विवासन - यत्न।4।
की थिक वारिदकाल तरूण पन्नग दारूण दुर्दान्त
मेघ तकर फण, विद्युत फणि - मणि, छाड़ल कंचुक ध्वान्त
घन - गर्जन फुत्कार, वमित विष अलि कुसुम - स्थित भेल
प्रोषित - पतिका - प्राण - समीरण प्रस्तुत पीबा लेल।5।
वकुल मालती माला लए-लए कए कवरी विन्यास
केतकि - यूथिकाक राजत भूषण कए भरि तन न्यास
विकच कदम्बक कर्णपूर, अर्जुनसँ राजि कपाल
करए प्रेयसी वनी प्रसाधन नायक वारिद काल।6।
नव तृण पुलक विजृम्भण कुटज कदम्ब कुसुम अभिराम
रूद्ध भेल पिक कण्ठ झरए गिरि निर्झर स्वेद प्रकाम
घन पिअ पाबि समागत भेलि सवेपथु वारंवार
प्रगटित भेल वनी दयिता तन मधुर भाव संचार।7।
उमड़ल घनपटलक गर्जन सुनि भए निदाघ संत्रस्त
अपन सकल अपसारित साधन ठाम-ठाम कए न्यस्त
केतकि मुकुलहि धएल धूलि, खद्योतहि उड़ु - समुदाय
विरहिणीक हृदयहि पजरल दावानल धएल नुकाए।8।
विकसित बकुल कदम्ब मालती सर्जहि सपुलक भेल
गव जलधर श्यामल वसनहि भल झाँपि सगर तन लेल
जल विहंग कदम्ब हस सारस नुपूर अपसारि
के करइछ अभिसार जलद ऋतु पिअ संगम चित धारि।9।
क्षमा क्षाम कए अपहरि प्रसभहि जल सरसी सरिताक
कए संतप्त ध्रा, उत्सादन कए वन विटप लताक
ताकि तिरोहित भेल त्रस्त तिग्मांशु दिनेश निहारि
विचरए चौदिश कुपित तोयधर विद्युद्दीपक बारि।10।
उमड़ल मेघक वारिद गरजि, सिरजि चपलाक तरंग
विकच नीप, सुरभित पंकिल थल संचर सगर भुंग
भेक नाद कर, केकी पिच्छस पसारि नृत्यरत भेल
सजग-मदन उन्निद्र विरहिजन निशि युग सम कए देल।11।
बिलमि प्रवासहि सुमरि प्रेयसी विरही भए निरूपाय
सेजहि पड़ल विनिद्र रजनि छन गनइत अकुलाए
क्लिन्न पवन परमेँ सपुलक तन दुस्सह घन रव सूनि
चपला चपल विलास विकल दृढ़ श्रवण सहमि रहु मूनि।12।
ग्रीष्मातपसँ क्षाम-काय सम्प्रति आप्यातित चित्त
गिरिदरदरी बिहरि पीवर उन्मद द्रुत गमन प्रवृत्त
आविलतोया तटिनी संप्लावित करइत तट बंध
चललि स्वैरिणी भेलि अतिक्रम कए नाना प्रतिबंध।13।
तड़ितहि वृष्टि करथि आरम्भ गृहस्थ अपन कृषि कर्म
भिन्न प्रकारक खेतक भल अवधारण करइत मर्म
चासल तथा समारल खेतहि रोपि धान हैमन्त
राखथि भलहि अराहि कतोक भूरि वर्षा पर्यन्त।14।
मड़ुआ, गम्हरी, गद्दरि; आंसु, मकइ, काउनि ओ साम
राखथि घरहि वटोरि सहन कए वर्षातप-परिणाम
भर्द समेटि, ततहि पनि रोपथि धानो कए आयास
अथवा सम्प्रति जोति धरथि करता गए रब्बी चास।15।
ग्रीष्म बाध उत्साहित कए छल श्रीविहीन कए देल
से पुनि मसृण शस्य परिपू ि त हरित कान्त भए गेल
समयक गुणे ह्रास - उन्नति होइतहि रहइछ सर्वत्र
ककरहु लिखल सुयश, ककरहु पुनि होइछ दुर्यशमात्र।16।
सर्प भयक अपनोदक पारम्पर्य सुसाधन मानि
पुलिक-मूल शुचि सित रवि वासरकेँ कर मूलहि बान्हि
नभ वदि अहि तिथिकाँ सब बिसहरि पूजथि भक्ति-समेत
पातरि घोरजाउर दए मण्डन करइत सकल निकेत।17।
सद्यःपरिणीता बालागण गिरिजा पूजथि नित्य
अग्रिम शुद्धिक तृतीया तिथि धरि करइत मंगल-कृत्य
मधुश्रावणी समुद मनाबथि बद्ध-भाव पति संग
प्रत्यासन्न वयस् नवोढ़ा करइत बहुविध रंग।18।
कौतुक-भवनहि बाला सदयित निशि भरि जागि बिताए
लाज भरलि उन्मुख जाग्रत कन्??? विजृम्भित काय
लोचन मुकुल निमीलित कण्टकमय कम्पिति तन वल्लि
अस्फुट कण्ठ ‘नहि-नहि’ कहितहुँ दृढ़ परिरम्भित भेलि।19।
श्रावण पूर्णिमाक शुभ पर्व सलौनी लोक-ख्यात
प्रतिकर मूल रक्षिका शोभित जनु मुकुलित जलजात
प्रातहिसँ याचकगण राखी हाथ होथि सम्प्राप्त
भूरि दक्षिणा दए-दए लोक करए शुभ आशिष प्राप्त।20।
भाद्रदर्शकेँ भोरहिसँ परती खरहोरि बौआए
खुरपी लए उपाड़ि कुश राखथि गृही सयत्न जोगाए
देव पितर आराधनमे भरि वर्ष करथि उपयोग
दशकर्महुमे अपरिहार्य बुझि करथि एकर उद्योग।21।
भादवमासक परम मनोरम चड़चन पर्व विशेष
ललनावृन्द प्रभातहिसँ करइत उद्योग अशेष
भरि भरि छाँछी दही तथा डाली-डाली पकमान
लए-लए हाथ उठए अराधथि साँझहि चौठीचान।22।
वृष्टि भीत आश्रमवटु गमनागमन विरलतर भेल
अन्य कार्यसँ विरत अध्ययन मात्रहिमे मन देल
आवृति दैत सकल पठितक बिसरल करइत कण्ठस्थ
बटुकवृन्द अध्ययन लग्न भए रहथि अहर्निश व्यस्त।23।
कुलपति देखि सबहि वटुकहि स्वाध्याय निरत एकान्त
देथि अधिकतर पाठ सबहिकाँ, भए सन्तुष्ट नितान्त
अपनहुँ बिनु आवश्यक काजेँ अकस्मात बहराथि
रहथि अनुज्ञा पालन तत्पर कान वटुकगण पाथि।24।
कखनहुँ कृष्ण सुदामाकेँ सन्दीपनि देखि समझा
आश्रम नियमक पालन हेतुक कए प्रेरित प्रत्यक्ष
कहथि - “ करथि उल्लंघन नियमक जे भए कौतुक लग्न
खेपथि राति जागि वनमे आश्रम कए चिन्ता मग्न।25।
जलधर तुंग करभ गर्जन सुनि भयमँ व्याकुल भेल
सिंहक कन्दर मध्य भानु कलबल छल आश्रय लेल
देखि ताहि अपसरित ततएसँ नहु-नहु भेल बहार
कन्यागृहमे द्वार खोलि सत्त्वर प्रवेश कए गेल।26।
कमल, कुमुद, शेफाली, तीरा सप्तच्छद, कहलार
कोविदार बन्धूक कुसुम सज्जित भूषण सम्भार
उपगत भेलि शरच्छी पहिरि धवल - ज्योत्सना - परिधान
करइत कारण्डव - कादम्ब - नाद भूषण झंकार।27।
ससुरभि - विकच - सरोरूह - आनन कास-हास अभिराम
दृग्विलास फटिक प्रभ जलहि शफर - संचरण ललाम
धवल - पक्ष जल विहग बलि - मंजुल - मुक्ता उर-हार
शलि - विभव - सम्पन्न धरित्री सज्जित स्वागत-काम।28।