कृष्ण-चरित / सातम सर्ग / भाग 2 / तन्त्रनाथ झा
विगत - जलद नभ - मण्डल, सर - सरिता - जल सीमित भेल
भेल अकर्द्दम धरा, गन्धवह मन्यर - गति भए गेल
शिखी, बलाका, चपला, इन्द्रधनुष भए गेल अदृश्य
विमल वारि कासार विकच - पंकज मण्डित कए देल।29।
शशि मुख शरद रजनि अपसारित कए प्रच्छद पट ध्वान्त
भेल वृद्धपर यथा किशोरी-कुच नितम्ब श्रीमन्त
नव - संग - लज्जा - विजड़ित - बाला - मृदु - जघन समान
सर - सरिता कर प्रगटित नहु - नहु गूहित पुलिन - प्रान्त।30।
वर्षाऋतुक समृद्ध आपगा, त्यक्त - कूल - मर्याद
गहि यथच्छ पथ रभसि बढ़लि अ जल पंकिल अपवाद
चलितहुँ एखन पुलिन - अवगुण्ठित गहि ट - सीमित बाट
भेलि अनाविल तैओ सहए निम्नगा - नाम - विषाद।31।
वर्षागमसँ कातर गुनि प्रिअ - प्रत्यागम - अवरोध
प्रोषितपतिका करइत ऋतु भरि असह विरह - दुख बोध
शरदहि गमनागमन - वृद्धि लखि लहि आशा परिबोध।32।
सर-सरिता सरजिस - कलहँस - विमण्डित भेल
वारिद - पाण्डुर भेल, जलाशय- जल निर्मल भए गेल
विकच - काश - सित धरा गेलि भए नम्र शालि परिपूर्ण
बढ़ल पथिक - संचार, चद्रिका थल प्रसन्न कए देल।33।
भेल अगस्त्योदय सर - सरिता - मलिल अनाविल भेल
मुकुलित सिङरहार झरि झरि दिशि दिशि सुरंभित कए देल
वाम - लोचना दृग गंचन - खंजन - दर्शन जन पाबि
भेल समुत्सुक भावी - वत्सर - फल अवधारण लेल।34।
ग्रीष्मात्सादित बाध तेजि भए उपगत पित्रागार
पत्युत्संग - प्रसुप्ता सम्प्रति कए निद्रा परिहार
निद्रित पतिक शिथिल भजु - बन्धनसँ कलबल बहराए
देल ताहि कए श्री-सम्पन्न पदार्पण कए - हरि - दार।35।
आश्विन - कृष्णपक्ष पितरक आराधन हेतु प्रशस्त
तर्पण - पार्वण आदि विहित कृति करइत नित्य गृहस्थ
उपरत पितरक क्षचतिथिकेँ ब्राह्मण - भोजन करबाए
करथि मातृनवमीक कृत्य कए स्मरण दिवंगत माए।36।
पड़ए अष्टमी - तिथिकेँ जितिआ - पाबनि परम प्रशस्त
नारीगण अपना सन्तानक दीर्घायुष्ट्व -निमित्त
राखथि ब्रत जीमूतवाहनक पूजा कए सविधान
ओङठन कए-कए मड़ुआ - माछ - सहिता नाना पकमान।37।
आशिवन - शुक्लहि सनुद मनाबथि देवीपक्ष गृहस्त
कलशस्थापनसँ यात्रा धरि रहइत प्रत्यह व्यस्त
घर-घर कए देवीक अर्चना - ध्यान - जाप व्यस्त
मन्दिर - गहवर - थानहुमध्य उत्सवक करथि विधान।38।
पाड़ि जयन्ती गृह दम्पति कए चण्डीपाठ विधान
करबाबथि कुमारि-भोजन दए - दए पातरि परमान्न
ठाम - ठाम मृण्मय - प्रतिमा - पूजात्सव कए सोत्साह
दशमा दिन कए देथि विसर्जित मूर्त्तिक नदी प्रवाह।39।
भरि नवरात्र पाठ - पूजा - संगीत - नृत्य - संग्लन
अमित उल्लसित - चित्त भेल दुर्गोत्सव मध्य निमग्न
दशमीकेँ पूजा समापन करइत भाव - विभोर
करथि जगज्जननीक विसर्जन ढारि बिछोहक नोर।40।
यात्रा हेतुक सुदिन एहिसँ लोक न मानए आन
कएल राम विजयादशमी दिन लंका - जय अभियान
कए अस्त्रादिक पूजन, बलवान सजि संग लगाए
तोड़थि क्रल्पित गढ़ नृपगण जययात्रा शुभद मनाए।41।
शिखा - मध्य बन्हबाए जयन्ती कए गुरूजनक प्रणाम
तकइत नीलकण्ठ यात्राविधि करए लोक शुभकाम
पूर्व विसर्जित दुर्गामूर्त्तिक दर्शन कए भए संग
नदी कूल लए जाए विनोद करथि मिलि रंग विरंग।42।
कोजागरा दिन नव परिणीतक श्वशुर पठाबथि भार
संध्याकाल चुमाओन हेतु गाम भरि पढ़ए हकार
जेठ देथि दूर्वाक्षत, ललना गाबथि मंगल गान
परसथि मुदित मना घरबैआ भारक पान - मखान।43।
सुखरातीकेँ पावण कए, प्रदोषमे दीप सजाए
गृहिणी लक्ष्मी पूजथि, फेरथि ऊक पुरूष समुदाय
अत्यूषहि ऊकक सण्ठीसँ सूप पीटि कए घोष
ललनालोकनि करथि अपसारित गृहक दरिद्रा-दोष।44।
दीपमालिका मण्डित प्रांगणसँ निष्कासित ध्वान्त
अमायामिनी मध्य पड़ाएल जाइत भए कलहन्त
अगणित धधकल उल्का वृत्त विताड़ित अति अकुलाए
ठाम-ठाम प्रज्वल तृणचयक भयेँ तजि नगर सड़ाए।45।
पड़िबहि गोपूजन कए, पशुकेँ देथि पखेब गृहस्थ
मलि - मलि तेल शृंगमे दए-दए गरदामी विन्यस्त
कए पशु धन मण्डन चरबाहहि दए-दए वस्त्र रंङाए
होथि विनोद निरत शूकरसँ पशु क्रीड़ा करबाए।46।
भ्रामृद्वितीयाकेँ सस्नेह संग लए - लए उपहार
अनाहूत भ्रातागण होथि समागत बहिनिक द्वार
पूजा तनिक ग्रहण कए, कए बिजली रूचिगर जलपान
करथि सयत्न-विनिर्मित नानाविध भोजन सविधान।47।
प्रतीहार षष्ठीकेँ दिनकर पूजा पर्व प्रशस्त
विविध वस्तु ओरिओन करइत भए समस्त दिन व्यस्त
पहिल अर्ध्य दए सन्ध्याकाल जलाशय जाए नहाए
उत्सर्गथि सब वस्तु व्रती प्रातहि पुनि हाथ उठाए।48।
बाँस विनिर्मित कोनिया पथिआ सूप आदि ओरिआए
कुम्भकारसँ हाथी कलश दीप कोपिआ बनबाए
छठिक प्रशस्त प्रसाद-रूप ठकुआ भुसबा पकवान
भक्ति भावस अर्पण करथि पहिरि नुतन परिधान।49।
कार्तिक शुद्धि एक दशीक दिन पर्व पुनीत अपार
सुतल चतुर्मास्या भरि विष्णु करथि निद्रा परिहार
भक्ति भावसँ लोक मनाबए देवोत्थान
सन्ध्याकाल उपोषित सविधि उठाबए श्रीभगवान।50।
ललनावृन्द कौमुदी धौत रजनि बिच सामा माथ चढ़ाए
करइत ललित गान चौदिश आबथि घुरि बुलि बुलि सीत चटाए
राका - रजनि मध्य सामाकेँ मिलि-मिलि कूड़ खेत लए जाए
चुगिला डाहि सोदरक चिर जीवन यात्रा कए देथि भसाए।51।
पर्व परायण उत्सव मग्न आश्रमक वटुगण
व्यस्त अन्यथा, सकथि उध्ययन कए नहि दए मन
नित्य काम्य नै मत्तिक कमनिरत भए कुलपति
देल शिथिल कए अनुशानकेँ स्वाध्यायक प्रति।52।
प्रथित कौमुदी महोत्सव
आश्रम मध्य मनाए
देल शरद सुखमय समय
बटुगण समुद बिताय।53।