कृष्ण कल्पित की नज़्र / कांतिमोहन 'सोज़'
(यह ग़ज़ल मुझे खास तौर पर पसन्द है। मैं इसे कृष्ण कल्पित की नज़्र करता हूँ जिन्होंने परिचय न होने के बावजूद हमेशा मेरी हौसला अफ़ज़ाई की)
बात करता है तो चुप्पी का गुमां होता है।
दिल से बढ़कर कोई दीवाना कहाँ होता है॥
रात और दर्द में कोई तो अदावत होगी
रात ढलती है तो क्यूँ दर्द जवां होता है।
अब कोई देखनेवाला न दिखानेवाला
अब लहू क्यूँ मेरी आँखों से रवां होता है।
वो समझता है कि पत्थर में कहीं दिल ही नहीं
कोई समझाय कि होता है मियाँ होता है।
आदमी एक जहाँ साथ लिए फिरता है
हो अकेला भी तो महफ़िल का समां होता है।
दिल बहल जाता है और वक़्त गुज़र जाता है
शेर कहने से कहाँ दर्द बयां होता है।
सोज़ को दिल से उतारा तो उसे भूल भी जा
ज़िक्र करने से तेरा राज़ अयां होता है॥
2002-2017