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कृष्ण बन कर ब्रह्म खेला स्वयं जिसके तीर / रंजना वर्मा
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कृष्ण बनकर ब्रह्म खेला स्वयं जिस के तीर ।
फिर चलो मस्तक चढ़ायें भानुजा का नीर।।
कुंज गलियों में यहीं खेला किया गुरु विभु रूप
चंचला चपला नदी यह है बड़ी गंभीर।।
थी इसी के जल नहायी गोपियों की देह
हाँ इसी के तट चुरायी श्याम ने थी चीर।।
सोहनी को भी यहीं पर था मिला महिवाल
रांझणा से मिलन को आयी यहीं पर हीर।।
किंतु जो चलते प्रणय-पथ मिल नहीं पाते
कसक उठती श्याम जल में है यही तो पीर।।
छोड़ मर्यादा यहीं राधा हुई बेचैन
रोक राही को सकी कब पाँव की जंजीर।।
मिलन आशा ही निराशा हो रही है सिद्ध
चिर विरह का लेख ही बनती सदा तकदीर।।