भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

केकर रोवले गँगा बही गेल, केकर रोवले समुन्दर हे / मगही

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मगही लोकगीत   ♦   रचनाकार: अज्ञात

केकर<ref>किसके</ref> रोवले गँगा बही गेल, केकर रोवले समुन्दर हे।
केकर रोवले भिजलइ चदरिया, केकर अँखिया न लोर<ref>आँसू</ref> हे॥1॥
अम्माँ के रोवले गँगा बही गेल, बाबूजी के रोवले समुन्दर हे।
भइया के रोवले भिंजले चदरिया, भउजी के अँखिया न लोर हे॥2॥
कवन कहल बेटी रोज रोज अइहें, कवन कहले छव मास हे।
कवन कहले भउजी काज परोजन<ref>उत्सव, समारोह, कार्य-विशेष पर</ref> कवन कहले दूरि जाहु<ref>जाओ</ref> हे॥3॥
अम्माँ कहले बेटी रोज रोज अइहें, बाबूजी कहले छव मास हे।
भइया कहले बहिनी काज परोजन, भउजी कहलन दूरि जाहु हे॥4॥
का तोरा भउजी हे नोन<ref>नमक</ref> हाथ देली, न देली पउती<ref>सींक की बनी हुई ढक्कनदार पिटारी</ref> पेहान<ref>ढक्कन</ref> हे।
का तोरा भउजी हे चूल्हा चउका रोकली, काहे कहल दूरि जाहु हे॥5॥

शब्दार्थ
<references/>