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केतकी के फूल / दिनेश कुमार शुक्ल
Kavita Kosh से
सीढ़ियों से आया कि लिफ़्ट से...
पर आया भय
थम गयी पदचाप सहसा, और फिर,
थाप थाप थाप ट्रिंग...
रात पौने दो बजे
माफिया का देस
फ़्लैट नब्बे फ़ीसदी
ख़ाली पड़े हैं साँय-साँय
हवा-बइहर क्या पता
क्या जा रहा था
कभी जाना कभी अनजाना
बहुत लम्बा और काला
पहन बाना
या कि
ख़ुद से निकलकर बाहर
कहीं मैं जा रहा था ख़ुद...
दरो-दीवार पर
चस्पॉं अजब-सी रोशनी थी
न बिजली थी
न सूरज चॉंद तारे थे
हमारी ही
किसी उम्मीद की आभा
उजाला भर रही थी
आँख के तारे
हमारे
केतकी के फूल
बाहर खिल रहे थे
अँधेरे में... भय न था !