केतकी फ़िर फूलेगी / वेरा, उन सपनों की कथा कहो
केतकी फिर फूलेगी
जूही में भी फूटॆंगी कलियाँ
पूर्व से लौटेंगे पक्षी
नगर,ग्राम, अरण्य को छा लेंगे दक्खिनी मेघ
यह मौसम का आवर्तन,
ऋतुओं की यह आवाजाही,
पता नहीं तुम्हें कैसी लगेगी
पर मैं तो आज दर्द से भरे अपने इस पूरे वजूद के साथ
आने वाले सूने दिनों को देख रहा हूँ
जीवन-व्यापी इस दुख की शिनाख़्त
इसी क्षण से तोड़ रही है मुझे अनागत बरसों तक के लिये
यह मुंडेर पर की रुकी धूप क्ल नहीं होगी
या हो सकता है हो भी
पर तुम्हारी आँखों में इस धूप को घुलते हुए देखना
शायद ही फिर कभी हो पाये
बहुत भारी है यह शब्द शायद
शायद बुड्ढे होने तक हम जीवित रहें
शायद तुम पहले धरती को विदा कहो
शायद अचानक किसी दिन तुमसे मुलाकात हो
शायद कोई शब्द न हो तुम्हारे पास
शायद मैं भी हो चुका होऊँ अपनी भाषा
कितना ख़तरनाक है प्रेम करना और जु़दा हो जाना
इस मोड़ के बाद जो भविष्य शुरु होता है
कितना ख़तरनाक है इसके बारे में सोचना
और एक मनुष्य की पूरी संजीदगी के साथ उसे जीना
गिनना समुद्र की लहरों को उनके टूटने तक
साँस की हद तक जुटे रहना जीवन की जय में
उतनी ही संजीदगी से
कोमलता और शिद्दत से
हर शै को देखना, चाहना, रचना
जितनी संजीदगी, कोमलता और शिद्दत से
जीवन में टूट कर जैसे पहली बार किसी को चाहा था
हमेशा बड़े जतन से कुछ सिरजते रहना
जैसे वह गुजरे प्रेम का कोई स्मारक हो
जिसमें सचमुच कोई अमरत्व हो
काल में विलीन हुए किसी संबंध का
प्रेम का अंत नहीं
दुख में, उदासी में, थकन और अकेलेपन में
थोड़ा और दुख, थोड़ी और उदासी, थोड़ी और थकन
थोड़ा और अकेलापन बनकर
बचा रहता है प्रेम -
अरसे पहले के एक सादे से जज़्बे और
एक जरूरी-से सम्बंध की याद दिलाता
....और तब आती हैं ऋतुएं,
दखिनी मेघ,
जूही में कलियाँ, केतकी में फूल
नदियों में उछालें लेता पानी
और रंग ढेर सारे आकाश के
शब्द रात के नीरव, चुप
और भोर की गूंज
मद्धिम !