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केवल एक / दीप्ति पाण्डेय

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अकेले पैदा होने और अकेले मरने के बीच
हमें अपना साथ ही काफी था
दो ध्रुवों को मिलाने के लिए
कोई काल्पनिक रेखा खींचना भी जरुरी नहीं था
इसलिए 'केवल एक' रहना ही चुना
जहाँ रहे, अकेले रहे
जहाँ से चले, अकेले ही चले
लेकिन जहाँ पहुँचे, पहुँचे दो
हमसे पहले, हमारा स्टेटस-केवल एक।

हम पहली बार डरे उस दिन,
जब अपने प्रिय एकांत में सेंध होती देखी
दीवारों के साथ हवाओं के कान उगते देखे
अपने पारदर्शी चयन को ढाँपते
गिरते-उठते, सरपट फिसलते
अपने निजत्व को छीछालेदर से बचाने के लिए
हम भागे, तो भागते ही रहे
इतना भागे कि खुद को पीछे छोड़ते चले गए
जहाँ पहुँचे वहाँ भी कान थे, नजरें थीं, दुनियावी पहरे थे

हम डरे, फिर डरे और इतना डरे
कि अपने ही अस्तित्व की ज़मीन खोदने लगे
बन गए शुतुरमुर्ग
हम डरे तो ढह गए थे
जीवन-मृत्यु की दो नदियों के मध्य
हम 'केवल एक' ही पुल थे

दुनिया के उत्स में सूने
खुशियाँ रज्जु-सर्प,
प्रेम आकाश-कुसुम
बस इतना ही रहा दर्शन
निज को सार्वजनिक देख
हम डरे, तो हम न रहे फिर
हमें छोड़, सबकुछ रहा