भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कैक्टस / चन्द्र प्रकाश श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
कैक्टस बड़े हो रहे हैं
विकसित हो रही हैं नई-नई प्रजातियाँ
अच्छे-अच्छे दिमाग़ लगे हैं
कैक्टस उगाने में
हम बाहर से भी मँगाते हैं कैक्टस
हमने बिचैलिए लगा रक्खे हैं
बिछता जा रहा है लगातार
कैक्टसों का जाल
घरों और गलियों में
सड़कों और चौबारों पर
दिन दूर नहीं जब हम
तुलसी की जगह कैक्टस रोपेंगे
जल्द ही आ जाएँगे
नुकीले कैक्टसों की गिरफ़्त में
स्कूल, दफ़्तर, बाज़ार
कचहरी और मंत्रालय
बहुत मुस्तैद हैं
कैक्टस उगाने वाले