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कैलेंडर के बदले पन्ने बसंत नहीं लाते / राघवेन्द्र शुक्ल
Kavita Kosh से
जब जमीन से उठकर वृक्षों पर
लौट आते हैं पत्ते,
अगर बसंत वही है
तो अभी इंतजार के दियों में और तेल डाल लूं।
झील के किनारे गाती कोयल की कूक
में सुर के लौट आने का नाम है बसंत
तो मुझे अपने कान
अभी हाथों से बंद रखने होंगे।
शीत से भीत किरणों के बिछोह से दुखी
फूलों की आंखों में
मिलन की चमक से बसंत दिखता है
तो अभी रजाई से बाहर निकलना ठीक नहीं।
सज-धजकर जो बसंत आता है न
उसकी वैध सीमाएं
हर चौखट पार नहीं करती।
सबके अपने हिस्से के पत्ते हैं,
सबकी अपनी कोयल की कूक है
सबके अपने सूरज-अपने फूल हैं
हर किसी की बगिया में
कैलेंडर के बदले पन्ने बसंत नहीं लाते..