कैसा नाम तुम्हारा! / प्रतिभा सक्सेना
बिना तुम्हारी खबर लिये औ'बिना तुम्हारा नाम पुकारे,
मैंने इस आजन्म कैद के कैसे इतने साल गुज़ारे!
बिना कहे कैसे बीतीं,इतने लंबे वर्षों की घड़ियां,
रही पोंछती बीते छापे, रही बिसरती बिखरी कड़ियां!
कितने शिशिर और सावन क्षितिजों तक दिशा-दिशा ने धारे!
अनगिन बर्षों में आईं अनगिन पूनम और अमावस,
मुझको ऐसा लगा सामने रखा हुआ ज्यों कोरा काग़ज़!
कितनी बार नृत्य ऋतुओं के, बिना तुम्हारा रूप निहारे!
कभी न पाती लिखी, न कोई लिखा नाम का कोई आखऱ,
किन्तु डाकिये की पुकार सुन उठा वेग कुछ उर में आकर,
मन मेंं उमड़ा कहीं पते पर लिखा न मेरा नाम उचारे!
दूर कर दिये स्वरमाला से कुछ आखऱ जो भूल सकूँ मैं,
होठों पर ताला डाला जो कभी स्वरों के वेग बहूँ मैं
लेकिन यत्न व्यर्थ, जिस रँग से पोते उसने और उभारे!
पानी डाला धो डालूँ, पर लगा रंग गहराता कपड़ा!
बढ़ता गया उमर के सँग निजता को खो देने खतरा!
कैसा नाम तुम्हारा जिसकी प्रतिध्वनि- हर ध्वनि में गुँजारे!