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कैसा मेरे शऊर ने धोखा दिया मुझे / साग़र पालमपुरी

कैसा मेरे शऊर ने धोका दिया मुझे

फिर ख़्वाहिशों के जाल में उलझा दिया मुझे


मुझ को हिसार-ए-ज़ात से ख़ुद ही निकाल कर

इक हुस्न-ए-दिल फ़रेब ने ठुकरा दिया मुझे


नींद आ गई मुझे कभी काँटों की सेज पर

फूलों के लम्स ने कभी तड़पा दिया मुझे


इक संग-ए-मील-सा था मगर कामनाओं ने

रुसवाइयों के जाल में उलझा दिया मुझे


गुमनामियों की गर्द में खोया हुआ था मैं

तेरे बदन के क़र्ब ने चमका दिया मुझे


‘साग़र’! वफ़ा की तुंद हवाओं ने आख़िरश

अर्ज़-ओ-समा में धूल-सा बिखरा दिया मुझे