कैसा वसन्त कैसी होली! / महावीर प्रसाद ‘मधुप’
जन जीवन में रस-रंग नहीं,
मन में उत्साह-उमंग नहीं,
उठती उर प्रेम -तरंग नहीं,
जीने का कोई ढंग नहीं,
जलती अरमानों की होली।
कैसा वसन्त, कैसी होली!
लौटा वह स्वर्ण-अतीत कहाँ,
दुख के दिन पाए बीत कहाँ,
है न्याय-नीति की जीत कहाँ,
अधरों पर मधुमय गीत कहाँ,
खाली है निर्धन की झोली।
कैसा वसन्त, कैसी होली!
जो मिली ख़ून से आज़ादी,
वह बनी महल की शहज़ादी,
कुछ लोग बने हैं उन्मादी,
फैली घर-घर में बर्बादी,
मजलूम सहें लाटी-गोली।
कैसा वसन्त, कैसी होली!
है दौलत की भरमार कहीं,
पल-पल जीवन है भार कहीं,
सपने होते साकार कहीं,
भूखा बचपन लाचार कहीं,
है सजल नयन सूरत भोली।
कैसा वसन्त, कैसी होली!
रंगीन यहाँ हर शाम कहीं,
छलकें मदिरा के जाम कहीं,
यौवन होता नीलाम कहीं,
पल को आराम हराम कहीं,
प्रहरी ख़ुद लूट रहे डोली।
कैसा वसन्त, कैसी होली!
हर बात बिगड़ती जाती है,
ख़ुद बाड़ खेत को खाती है,
चोरों के घर में थाती है,
ख़ुदगर्ज़ी त्याग कहाती है,
फिरती बटमारों की टोली।
कैसा वसन्त, कैसी होली!
है चक्र अभावों का चलता,
हर दिन दुख साँचे में ढलता,
सुविधा से पेट नहीं पलता,
धू-धू कर उर अन्तर जलता,
मन की पीड़ा है अनबोली।
कैसा वसन्त, कैसी होली!